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उत्तर प्रदेश ही नहीं केंद्र की राजनीति पर भी असर डालेंगी प्रियंका

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:27 Jan 2019 1:54 PM GMT

उत्तर प्रदेश ही नहीं केंद्र की राजनीति पर भी असर डालेंगी प्रियंका

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आदित्य नरेन्द्र

राजनीति में पहले भी अकसर चौंकाने वाले फैसले लिए जाते रहे हैं। ऐसे फैसले एक ओर जहां विरोधियों के पूर्वानुमान को गड़बड़ा देते हैं वहीं कई बार भविष्य का राजनीति में महत्वपूर्ण बदलाव का संकेत भी दे देते हैं। पिछले दिनों राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश में भी उस समय कुछ ऐसा ही हुआ जब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपनी बहन प्रियंका को कांग्रेस महासचिव बनाते हुए पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाने की घोषणा कर दी। उनकी इस घोषणा से सपा-बसपा और रालोद गठबंधन से मिली चुनौतियों से पहले से ही परेशान भाजपा नेतृत्व जहां हक्का-बक्का रह गया है वहीं अखिलेश और मायावती की परेशानी पर भी बल पड़े हुए हैं। क्योंकि कोई भी राजनीतिक विश्लेषक अभी यह अंदाज लगाने में सक्षम नहीं है कि प्रियंका के अब खुल राजनीति में आने से किस पर क्या और कितना प्रभाव पड़ेगा। लेकिन यह सौ फीसदी तय है कि प्रियंका का राजनीति में आगमन कांग्रेस की जितनी सीटें बढ़ाएगा उतना ही प्रधानमंत्र पद के लिए भाजपा और तीसरे मोर्चे का दावा कमजोर होगा। इसलिए यदि अब भाजपा और सपा-बसपा अपनी रणनीति में कोई बदलाव करें तो किसी को कोई हैनी नहीं होनी चाहिए।

दरअसल भारतीय राजनीति में दो ही प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियां हैं भाजपा और कांग्रेस। ऐसे में यह एक राजनीतिक सच्चाई है कि जब भी इन दोनों राजनीतिक पार्टियों में से कोई भी एक पार्टी मजबूत होगी तो वह दूसरी राष्ट्रीय पार्टी और क्षेत्रीय दलों की राजनीतिक जमीन छीनकर ही हो सकता है। राजनेता इस सत्य को बाखूबी समझते भी हैं। उत्तर प्रदेश में कई तथाकथित धर्मनिरपेक्ष क्षेत्रीय पार्टियों ने भाजपा को सांप्रदायिक बताते हुए भविष्य में केंद्र में कांग्रेस से समझौते की गुंजाइश बना रखी है जबकि इन्हीं दलों ने लोकसभा चुनावों के लिए सीट समझौते में कांग्रेस के लिए सिर्प दो सीटें छोड़कर उसे सस्ते में निपटा देने की योजना बनाई थी। चूंकि केंद्र की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर ही जाता है ऐसे में कांग्रेस उत्तर प्रदेश को सपा-बसपा के लिए छोड़ना गवारा नहीं सकती थी। उस पर उत्तर प्रदेश में खत्म हो जाने के खतरे से बचने के लिए खड़े हो जाने का दबाव था। लेकिन उसके सामने परेशानी नेतृत्व और रणनीति की थी। मोदी-योगी और अखिलेश-मायावती के सामने राहुल अकेले थे और कांग्रेस नेतृत्व कमजोर दिखाई दे रहा था। सोनिया की बीमारी ने इस स्थिति को और भी बदतर कर दिया था। ऐसे में प्रियंका को सक्रिय राजनीति में लाना ही इस समय कांग्रेस के सामने एकमात्र विकल्प था। अब जरा कांग्रेस की रणनीति पर भी ध्यान दीजिए। कांग्रेस नेतृत्व ने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन प्रभारी गुलाम नबी आजाद को हटाकर पूर्वी उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी प्रियंका को और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी माधव राव सिंधिया को सौंपी है। सवर्ण राजनीति में यह दोनों चेहरे अपना एक खास प्रभाव रखते हैं। इसके उलट सपा ओबीसी और बसपा अनुसूचित जाति के वोटों पर अपना प्रभाव जताते रहे हैं। ऐसे में सवर्ण वोटों का बंटवारा कांग्रेस और भाजपा के बीच हो सकता है जिससे भाजपा को नुकसान होना तय है लेकिन सिर्प इतना ही कांग्रेस की जीत की गारंटी नहीं हो सकता। उसके लिए ओबीसी और अनुसूचित जाति के वोटों में भी सेंध लगाना जरूरी है। ऐसा होने पर सीधे-सीधे सपा-बसपा को नुकसान होगा। मुस्लिम वोट का एक बड़ा हिस्सा भी कांग्रेस को तभी मिलेगा जब वह उत्तर प्रदेश में अपने कदम मजबूती से जमाती हुए दिखाई देगी। इसका इशारा छोटे दलों के साथ कांग्रेस के गठबंधन और उसके द्वारा घोषित लोकसभा प्रत्याशियों के आंकलन से मिल जाएगा। कांग्रेस इस समय करो या मरो की स्थिति से गुजर रही है। प्रियंका का सक्रिय राजनीति में आना प्रदेश कांग्रेस में जान पूंक सकता है। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि प्रियंका इंदिरा गांधी जैसी दिखती हैं या नहीं बल्कि महत्वपूर्ण यह होगा कि वह इंदिरा जी की तरह राजनीतिक ऊंचाइयों को छूट पाती हैं या नहीं। उत्तर प्रदेश में उनके रूप में राहुल गांधी को एक भरोसेमंद सहयोगी मिला है। आगामी चुनावों को देखते हुए प्रियंका के पास समय कम है लेकिन यदि प्रियंका उत्तर प्रदेश में कोई चमत्कार करने में सफल हो जाती हैं तो केंद्र में निस्संदेह प्रधानमंत्री पद के लिए राहुल गांधी के दावे को मजबूती मिलेगी। इसका झटका न सिर्प भाजपा बल्कि उन क्षेत्रीय दलों के नेताओं को भी झेलना पड़ सकता है जो लंबे अरसे से प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब पाले हुए हैं।

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