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आर्थिक संतुलन का महत्व समझे सत्तापक्ष और विपक्ष

👤 Veer Arjun Desk 4 | Updated on:3 Feb 2019 4:06 PM GMT

आर्थिक संतुलन का महत्व समझे सत्तापक्ष और विपक्ष

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कहते हैं कि लोकतंत्र की चुनावी बिसात पर वही सरकार कामयाब रहती है जो जन आकांक्षाओं की ज्यादा से ज्यादा पूर्ति कर सके। पिछले कुछ अरसे से देश का समूचा विपक्ष इसे साबित करने पर तुला था कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को लोगों की भावनाओं से कुछ लेना-देना नहीं है। अपनी बात के समर्थन में वह नोटबंदी, जीएसटी, कर्जमाफी और आरक्षण के उदाहरण जनता के सामने रखते थे। शुरुआत में उनकी इस रणनीति का जवाब देना केंद्र सरकार ने शायद जरूरी नहीं समझा। इसीलिए मोदी की लोकप्रियता पर निर्भर केंद्र सरकार लगातार ऐसे कदम उठाती रही जिससे अर्थव्यवस्था को नई चमक मिले और उसकी विश्व रैंकिंग में सुधार आए। हालांकि नोटबंदी के उसके फैसले को अलग नजरिये से भी देखा जा सकता है। इस दौरान सरकार शायद जनता का मूड भांपने में असफल रही। इसी का नतीजा यह रहा कि पिछले दिनों हुए विधानसभा चुनावों में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसे राज्य उसके हाथ से निकल गए और गुजरात भी जाते-जाते बचा। भाजपा शासित तीन राज्यों में हार का प्रमुख कारण कांग्रेस द्वारा किसानों की कर्जमाफी का ऐलान माना गया। कांग्रेस ने चुनावों से पहले वादा किया था कि सत्ता में आते ही किसानों के कर्ज माफ कर दिए जाएंगे। सत्ता में आने पर उसने इस पर अमल भी कर दिया। अपनी इस जीत से उत्साहित कांग्रेस नेतृत्व ने आम चुनावों को ध्यान में रखते हुए किसानों को मिनिमम इनकम गारंटी की बात कहनी शुरू कर दी। यह भाजपा नेतृत्व के लिए खतरे की घंटी की तरह था। एक तरफ कांग्रेस और दूसरी तरफ भाजपा विरोध के नाम पर बन रहे महागठबंधन की चुनौती से मुकाबला करने के लिए वह सब कुछ करना जरूरी था जो भाजपा को वापस सत्ता में ला सके। आयुष्मान भारत, सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण के बाद अब पीयूष गोयल द्वारा पेश बजट को इसी की अंतिम और सबसे बड़ी कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए। अमीरों को छोड़कर जनता के लगभग हर वर्ग को कुछ न कुछ देने वाला यह बजट विशुद्ध रूप से बड़ी संख्या में मतदाताओं के वोट पाने की उम्मीदों से जुड़ा हुआ है। हालांकि विपक्ष ने इसमें कमियां ढूंढकर इसकी आलोचना शुरू कर दी है जिसके जवाब में केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने विपक्ष पर तंज कसते हुए कहा है कि विपक्ष का तो काम यही है। सरकार यदि लोगों को सोना भी देगी तो वह उसे लोहा ही बताएंगे।

दरअसल भारत जैसे देश में जहां हर साल कहीं न कहीं चुनाव होते हैं वहां ऐसे चुनावी वादों को लोकतंत्र पर आसन्न खतरे के रूप में महसूस किया जाना चाहिए। बजट आय और व्यय का सालाना लेखा-जोखा होता है। आमदनी से ज्यादा एक सीमा तक खर्च किया जाना ही उचित होता है। भारत जैसे विकासशील देश के लोगों की जरूरतें और आकांक्षाएं काफी ज्यादा होती हैं। इसे पूरा करने के लिए देश की आर्थिक स्थिति का सुदृढ़ होना बहुत जरूरी है। सत्ता पाने या बचाने के लिए बिना सोचे-समझे वादे करने के आर्थिक खतरे को भी ध्यान में रखा जाना जरूरी है। नहीं तो अर्थव्यवस्था के ढह जाने का खतरा भी हो सकता है। उदाहरण के लिए सरकार ने छोटी जोत वालों को छह हजार रुपए प्रति वर्ष देने का फैसला किया है। इस मद में सरकार 72 हजार करोड़ रुपए खर्च करेगी। यह एक बहुत बड़ी राशि है जो प्रति वर्ष दी जाएगी। अब विपक्ष इसे 500 रुपए महीना और 17 रुपए रोज बताकर नजरंदाज करने का प्रयास कर रहा है। मान लीजिए सरकार दबाव में आकर इसे दोगुना कर दे या फिर कांग्रेस इसे दोगुना करके देने का वादा कर दे तो या तो किसी दूसरी योजना का बजट काटकर इसकी पूर्ति की जाएगी या बजट घाटे को बढ़ाया जाएगा। दोनों ही स्थितियों में अपने खतरे निहित हैं। यह घाटा पूरा करने के लिए जो लोग टैक्स दे रहे हैं उनसे सरकार को और टैक्स वसूलना होगा। इसका असर विदेशी निवेशकों पर भी पड़ेगा। ज्यादा टैक्स होने पर वह यहां इंडस्ट्री लगाने से कतराएंगे। इससे रोजगार के अवसर घटने के साथ-साथ देश को आर्थिक नुकसान होगा। दूसरा रास्ता सरकार के पास ज्यादा नोट छापने का है। यह तरीका भी महंगाई को बेलगाम कर सकता है। दोनों हालात में उस वर्ग को नुकसान होना तय है जिसे केंद्र में रखते हुए राजनीतिक दल आज अपनी राजनीति कर रहे हैं। वोट पाने के लिए आर्थिक नीतियों से खिलवाड़ सही नहीं होगा क्योंकि इसके नतीजे दूरगामी होते हैं। बेहतर होगा कि सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों आर्थिक संतुलन का महत्व समझें ताकि आने वाले वर्षों में भारत एक मजबूत वैश्विक अर्थव्यवस्था के रूप में अमेरिका और चीन का मुकाबला कर सके।

आदित्य नरेन्द्र

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