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पश्चिम बंगाल में हिंसक चुनाव

👤 Veer Arjun Desk 4 | Updated on:14 May 2019 4:44 PM GMT
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पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है। चुनाव आयोग के सुरक्षा के चाक-चौबंद इंतजाम के बाद भी वोटिंग के दौरान हिंसा की घटनाओं में चरण दर चरण इजाफा हो रहा है। छ"s चरण में आ" सीटों पर मतदान के दौरान घाटल से बीजेपी कैंडिडेट भारती घोष पर टीएमसी समर्थकों ने हमला कर दिया वहीं, बंगाल के बीजेपी चीफ दिलीप घोष पर भी हमले की कोशिश की गई। दिलचस्प तथ्य यह है कि हिंसा के बावजूद वोटिंग को लेकर नागरिकों में भारी उत्साह दिख रहा है, और पिछली बार की तरह इस बार भी रिकार्ड मतदान पश्चिम बंगाल में हो रहा है। पश्चिम बंगाल में हिंसक चुनावों की परंपरा रही है। वह विरासत मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को भी मिली है या उन्होंने उसे भी ग्रहण कर लिया है। इतना मानना ही पर्याप्त नहीं है, क्योंकि ममता की निर्मम सरकार के दौरान तमाम मर्यादाएं `बंगाल की खाड़ी' में फेंक दी गई हैं। बेशक सरोकार और चिंताएं संविधान और लोकतंत्र को बचाने के फ्रति जताई जाती रही हों, लेकिन लोकतंत्र के सबसे महान पर्व चुनाव को ही लहूलुहान किया जा रहा है, जिसका साफ नजारा लोकसभा चुनाव में सारा देश देख रहा है।

इतिहास को खगाले तो बंगाल में राजनीतिक हिंसा की शुरुआत 1960 के दशक में हुई थी। इस राजनीतिक हिंसा के पीछे तीन अहम कारण हैं- राज्य में बढ़ती बेरोजगारी, विधि शासन पर सत्ताधारी दल का वर्चस्व। अभी एक अन्य फ्रमुख कारण यह भी है कि जिस तरह से भाजपा का उभार हुआ है, उससे तनाव बढ़ा हुआ है। पश्चिम बंगाल विधानसभा के एक जवाब के मुताबिक 1977 से 2007 तक (लेफ्ट फ्रंट की सत्ता) 28,000 राजनीतिक हत्याएं हुई थीं। सिंगूर और नंदीग्राम का आंदोलन भी हिंसा का एक नमूना है। लेकिन बहुत सारी घटनाएं तो ऐसी होती हैं, जो रिपोर्ट ही नहीं हो पातीं। वहीं देखा जाए तो तृणमूल कांग्रेस पश्चिम बंगाल से वामदलों को सत्ता से उखाड़ फेंकने के बाद पहली बार कड़े फ्रतिरोध का सामना कर रही है। वर्ष 2011 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को मात्र 4 फीसदी वोट मिले थे लेकिन वर्ष 2018 के पंचायत चुनाव के बाद भगवा पार्टी अचानक मुख्य विपक्षी पार्टी बन गई।

जमीनी स्तर से आ रही रिपोर्टों के मुताबिक इस बार बीजेपी का वोट शेयर 16 फ्रतिशत के मुकाबले दोगुना हो सकता है। वहीं पश्चिम बंगाल में वर्ष 1977 से लेकर 2011 तक शासन करने वाले वामदल राज्य की राजनीति में अपना जनाधार खोते जा रहे हैं। वर्ष 2011 में जहां उन्हें 40 फीसदी वोट मिले थे वहीं, 2016 में उन्हें मात्र 25 फ्रतिशत वोट मिले थे। लेफ्ट के पतन से जहां टीएमसी को फायदा हुआ वहीं बंगाल की सियासत में अचानक आए इस बदलाव से बीजेपी को सबसे ज्यादा लाभ हुआ। पश्चिम बंगाल में करीब 30 फीसदी मुसलमान और 24 फ्रतिशत दलित हैं और दोनों ही समुदायों में वामदलों का जनाधार काफी घटा है। 2014 के चुनाव में बंगाल में भाजपा को औसतन 17 फीसदी वोट हासिल हुए थे। पंचायत चुनावों में यह औसत बढ़कर करीब 19 फीसदी हो गया। कुछ सीटें तो ऐसी रहीं, जहां 40 फीसदी तक वोट भाजपा के पक्ष में आए। ये शुरुआती संकेत काफी सकारात्मक हैं। शायद यही कारण है कि उत्तर फ्रदेश के बाद फ्रधानमंत्री मोदी ने सबसे अधिक रैलियां बंगाल में ही संबोधित कीं। अब फ्रधानमंत्री ने `चुपचाप कमल छाप' अभियान का आह्वान किया है। कभी लाल गढ़ रहे पश्चिम बंगाल में मुसलमान अब तृणमूल कांग्रेस के साथ हैं वहीं दलितों का काफी ज्यादा वोट अब बीजेपी के साथ चला गया है। ममता बनर्जी ने वामदलों के सफाए के लिए इमामों को पेंशन समेत कई कल्याणकारी योजनाएं चलाई हैं।

भाजपा ने पिछले पांच साल में यहां संग"न को काफी मजबूत किया है। इसका नतीजा है कि भाजपा राज्य में चौथे नंबर से दूसरे नंबर की पार्टी बन गई है। वहीं, अब बांग्लादेशी घुसपै"ियों का मुद्दा हो या फिर एनआरसी ऐसे तमाम ज्वलंत मुद्दों पर दोनों दलों के बीच तलवारें पहले से खिंची हुई हैं। हालांकि टीएमसी फ्रमुख ममता बनर्जी बंगाल में बीजेपी के लिए कोई भी स्पेस नहीं देना चाहती हैं। पिछले दो चुनावों की बात करें तो देश के अन्य राज्यों की तुलना में यहां सबसे ज्यादा वोट पड़े हैं। 2009 के लोकसभा चुनाव में बंगाल में 81.40 फीसदी वोट पड़े थे और 2014 की मोदी लहर में भी राज्य की 82.17 फीसदी जनता ने वोट डाला था। बंगाल की बंपर वोटिंग दिखाती है कि विभिन्न दलों का कैडर अपने नेताओं के साथ मजबूती से खड़ा है। भीषण गर्मी और हिंसा की घटनाएं भी बंगाल की जनता का मनोबल तोड़ने में नाकाफी रहती हैं।

पश्चिम बंगाल में हिंसा की घटनाएं तब हो रही हैं, जब चुनाव आयोग ने सुरक्षित तरीके से मतदान के लिए आ"ाsं सीटों पर कुल 71 हजार सुरक्षाकर्मियों को तैनात किया है। वैसे इतिहास के पन्ने पलटकर देखें तो पश्चिम बंगाल में 60 के दशक से राजनीतिक झड़पें और हिंसा ही चुनावी हथियार रहे हैं। शासन और फ्रशासन पर सत्ताधारी दल अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए ऐसे हथियारों का उपयोग करते आए हैं। 2019 लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में मतदान भी बंपर हो रहा है।

ममता बनर्जी का गढ़ कहे जाने वाले पश्चिम बंगाल की इस किलेबंदी के पीछे कई वाजिब कारण हैं। दरअसल, जैसे-जैसे पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव का एक-एक चरण बीतता जा रहा है, वैसे राज्य में सत्ताधारी टीएमसी और विपक्षी बीजेपी के बीच हिंसा और धमकी देने की घटनाएं तेज हो गई हैं। पश्चिम बंगाल की चुनावी राजनीति पर पैनी नजर रखने वाले सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के मुताबिक बढ़ती हिंसा के पीछे महत्वपूर्ण राजनीतिक संकेत छिपा हुआ है। उनके मुताबिक राज्य में हिंसा का राजनीतिक बदलाव से गहरा संबंध रहा है। हिंसा राज्य में राजनीतिक बदलाव लेकर आती है। चुनाव आयोग ने छ"s चरण की मात्र 8 सीटों पर सहज और शांति से मतदान के मद्देनजर केंद्रीय सुरक्षा बलों की 770 कंपनियां बंगाल में तैनात की थीं, फिर भी फ्रत्येक बूथ को पर्याप्त सुरक्षा नहीं दी जा सकी। व्यापक स्तर पर हजारों सुरक्षाकर्मियों की तैनाती के बावजूद हिंसा ऐसी हुई कि मीडिया भी उसका शिकार बना। इसे बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस की गुंडागर्दी करार दें या संघ-भाजपा की रणनीति मानें, लेकिन लोकतंत्र का सम्मान करना है, तो उसमें हिंसा की कोई गुंजाइश नहीं है।

पहले वामपंथी हिंसा के जरिए चुनाव लूटते थे, लिहाजा वे 34 साल तक सत्ता में रहे। ममता बनर्जी ने उन्हें चुनौती दी, उनके काडर में सेंध लगाई, लेकिन हमारा मानना है कि ममता लोकतांत्रिक जनादेश के बाद ही सत्ता में आ पाई होंगी! फिर अब उनकी सरकार में मतदान के हरेक चरण में हिंसा के लावे क्यों फूटते नजर आ रहे हैं? चूंकि अब ममता के सामने फ्रधानमंत्री मोदी और भाजपा की चुनौती है, क्या उसी के मद्देनजर हिंसा का दामन थामा गया है? दरअसल जिन आ" सीटों पर छ"s चरण में मतदान हुआ है, उसमें से सात सीटें ऐसी हैं, जो भाजपा के `मिशन-23' का हिस्सा हैं। अभी सभी आ" सीटें तृणमूल के कब्जे में हैं। क्या हिंसा के जरिए ममता और उनकी पार्टी अपनी सत्ता और सियासत बचा लेना चाहती हैं?

दोनों पक्षों में चुनावी और व्यक्तिगत खटास इतनी बढ़ गई है कि ममता बनर्जी फ्रधानमंत्री को थप्पड़ तक मारने को तैयार हैं और मोदी हर हालत में दीदी की सत्ता को उखाड़ने पर आमादा हैं। ममता चिंतित भी हैं, क्योंकि वामपंथियों का जो बचा-खुचा काडर था, वह भी भाजपा की तरफ जा रहा है। चुनावी हिंसा पर चुनाव आयोग को भी गंभीर निर्णय लेने पड़ेंगे। यदि एक पूर्व आईपीएस अधिकारी एवं अब भाजपा उम्मीदवार भारती घोष को अपनी जान बचाने के लिए मंदिर और थाने में शरण लेनी पड़ी, बावजूद सुरक्षाकर्मी के तो यह कैसा लोकतंत्र है? लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में मुकाबला भाजपा और तृणमूल में ही है। बहरहाल जो हालात कभी बिहार में सुना और देखा करते थे, उनसे भी उग्र और हिंसक माहौल अब बंगाल का हो गया है।

उसके बावजूद ममता और विपक्षी खेमे की चीखा-चिल्ली है कि मोदी फिर फ्रधानमंत्री बन गया, तो संविधान ही खत्म हो जाएगा और फिर कभी चुनाव नहीं कराए जाएंगे। यह बकवास फ्रचार है, क्योंकि भारत का लोकतंत्र उसके 134 करोड़ लोगों की चेतना में बसा है। जिस तरह से पश्चिम बंगाल में हिंसा के बावजूद भारी मतदान हो रहा है वो किसी बड़े परिवर्तन की ओर इशारा कर रहा है।

-लेखक राज्य मुख्यालय पर मान्यता पाप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं।

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