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चुनावों में अपराधी तत्वों पर रोक हो
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श्याम कुमार
सजायाफ्ता नेताओं के आजीवन चुनाव लड़ने से संबंधित एक याचिका सर्वेच्च न्यायालय में दाखिल है, जिस पर सुनवाई करते हुए न्यायालय ने निर्वाचन आयोग को इस बात के लिए कड़ी फटकार लगाई है कि वह उक्त पकरण पर अपना स्पष्ट मत नहीं पस्तुत कर रहा है। सर्वेच्च न्यायालय ने निर्वाचन आयोग से यहां तक पूछ लिया कि क्या विधायिका इस मुद्दे पर उसे कुछ कहने से रोक रही है और यदि ऐसा है तो वह सर्वेच्च न्यायालय की जानकारी में यह बात लाए। सर्वेच्च न्यायालय निर्वाचन आयोग से यह जानना चाहता है कि वह सजायाफ्ता लोगों के चुनाव लड़ने पर आजीवन पतिबंध लगाए जाने के पक्ष में है या नहीं? मामला यह है कि उक्त पकरण के सम्बंध में चुनाव आयोग ने सर्वेच्च न्यायालय में जो शपथपत्र पस्तुत किया है, उसमें उसने स्वीकार किया है कि वह आजीवन पतिबंध लगाए जाने के पक्ष में है। लेकिन याचिका पर सुनवाई के दौरान चुनाव आयोग ने कहा कि वह आपराधिक मामलों में दोषी पाए जाने वाले लोगों पर आजीवन पतिबंध लगाए जाने के पक्ष में नहीं है। निर्वाचन आयोग का यह दोहरा रवैया सचमुच हैरत में डालने वाला है तथा यह सवाल खड़ा हो रहा है कि क्या नए मुख्य निर्वाचन आयुक्त के आ जाने से आयोग की नीति बदल गई है? यदि ऐसा है तो यह बहुत चिंता का विषय है, क्योंकि टीएन शेषन ने चुनाव आयोग को उसकी वास्तविक शक्तियों से अवगत कराकर देश में लोकतंत्र को खत्म होने से बचाने का जो महान कार्य किया था, उस पर पानी फिर जाएगा।
लोकतंत्र का वास्तविक रूप यह होना चाहिए कि उसमें अच्छे लोगों द्वारा अच्छे लोगों के लिए अच्छे लोग चुनकर ओं और उनके जरिए जनकल्याणकारी सरकार का संचालन हो। लोकतंत्र का आदर्श रूप यही है। किन्तु इसके विपरीत यदि लोकतंत्र में बुरे लोगों द्वारा बुरे लोग निर्वाचित होने लगें तो लोकतंत्र का वास्तविक उद्देश्य ही नष्ट हो जाता है। टीएन शेषन के पहले हमारे लोकतंत्र का जो स्वरूप हो गया था, उसे सोचकर मन सिहर उ"ता है। गुंडागर्दी एवं भ्रष्टाचार का दूसरा नाम चुनाव हो गया था। सम्पूर्ण चुनाव गुंडागर्दी का पर्याय बन गया था। `बूथ कैप्चरिंग' एवं मतपेटियों का लूट जाना आम बात थी। जाली वोट डालने के "sके लिए जाते थे। वास्तविक मतदाताओं को मतकेंद्रों पर नहीं जाने दिया जाता था और उनके वोट पड़ जाते थे। दंगा-फसाद एवं हत्यों हर चुनाव के अभिन्न अंग बन गए थे। भयभीत शरीफ लोग वोट डालने से बचने लगे थे। आमतौर पर हमारे चुनावों की यही छवि बन गई थी। निर्वाचन आयोग केंद्र सरकार के एक विभाग की तरह काम किया करता था। केंद्रीय निर्वाचन आयोग की शिथिलता का दुष्परिणाम दंतविहीन राज्य चुनाव आयोगों पर पड़ा तथा उनकी स्थिति और अधिक लाचारीपूर्ण हो गई। इतना ही नहीं, विद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में होने वाले छात्रसंघों के चुनावों में गुंडागर्दी एवं अवैध वसूली भयंकर रूप से छा गई। एक-एक उम्मीदवार लाखों रुपए खर्च करता था, जिसकी वसूली दुकानदारों व अन्य व्यवसायियों से हुआ करती थी। गुंडे गिरोहों के बीच संघर्ष होते थे। गोलियां चलती थीं तथा हत्यों भी हो जाया करती थीं। इंदिरा गांधी की `इमरजेंसी' में जनता देख चुकी थी कि लोकतंत्र की आड़ लेकर एक स्वार्थी तानाशाह देश को किस पकार जेल में तब्दील कर सकता है तथा अमानवीय अत्याचारों की चक्की में जनता को पीस सकता है। गुंडागर्दी एवं अपराधियों के बोलबाले से ऊबी हुई जनता कहने लगी थी कि इस लोकतंत्र से तो राजतंत्र ही अच्छा होता है। यदि राजा जनसेवा की भावना वाला हो तो वह जनता के दुख-दर्द को अपना समझता है और उसके कष्टों का निवारण किया करता है। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है कि राजा रात में वेश बदलकर पजा की वास्तविक स्थिति जानने निकलता था। शासन का आदर्शतम रूप `रामराज' माना जाता है, जो वस्तुतः राजतंत्र ही है। चुनावों की इस दुर्दशापूर्ण स्थिति में उद्धारकर्ता के रूप में टीएन शेषन का अवतरण हुआ। उन्होंने मुख्य निर्वाचन आयुक्त पदपर आसीन होते ही आयोग की ढीलीढाली चूलें कसनी शुरू कीं तथा आयोग को उसे पाप्त जबरदस्त शक्तियों का बोध कराया। आयोग अपने अधिकारों को बिल्कुल भूल चुका था तथा जनता को भी इस बात का पता नहीं था कि आयोग को निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए अपार शक्तियां पाप्त हैं। टीएन शेषन ने जब जलवा दिखाया और तलवार चलानी शुरू की तो केंद्र की कांग्रेसी सरकार सकते में आ गई। चूंकि शेषन जिन शक्तियों का इस्तेमाल कर रहे थे, वो शक्तियां निर्वाचन आयोग को संविधान से मिली हुई थीं, अतः केंद्र सरकार ने दूसरा दांव खेला। निर्वाचन आयोग में दो अन्य सदस्यों की भी व्यवस्था थी, किन्तु उसे अब तक त्रिसदस्यीय नहीं बनाया गया था। अतः केंद्र सरकार ने शेषन का पर कतरने के लिए दो अन्य सदस्यों की भी तैनाती कर दी। पर शेषन का व्यक्तित्व इतना विराट था कि उससे अधिक अंतर नहीं पड़ा तथा शेषन ने देश में नष्ट हो रहे लोकतंत्र को न केवल बचा लिया, बल्कि आयोग को ऐसी ऊर्जा दी, जिससे वह अब तक ऊर्जायमान है।
सर्वेच्च न्यायालय ने निर्वाचन आयोग को सही फटकार लगाई है। लेकिन आयोग ने यदि न्यायालय में अंतिम रूप से कह दिया कि वह अपराधी तत्वों पर आजीवन पतिबंध लगाए जाने के पक्ष में नहीं है, तब क्या होगा? विधायिका से तो यह आशा करना बिल्कुल व्यर्थ है कि वह चुनावों में अपराधी तत्वों के भाग लेने या भ्रष्टाचार पर कभी कोई रोक लगाएगी। विगत में ऐसे अनेक अवसर आए, जिनमें विधायिका चुनावों का शुद्धिकरण करने से पीछे हट गई थी। आजकल नेतागिरी धन कमाने का सबसे आसान व्यवसाय बन गई है, जिसमें कोई लागत लगाए बिना अपार धनवर्षा की गुंजाइश होती है। अतः जनपतिनिधि सुधार के लिए कभी कोई कड़ा कदम नहीं उठाएंगे और यदि उठाएंगे भी तो बहुत आंशिक रूप में। सारा दारोमदार सर्वेच्च न्यायालय पर है कि वह जैसे भी हो, हमारे यहां चुनावों का शुद्धिकरण करे।
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