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भाजपा-कांग्रेस न भूलें गुजरात चुनाव में आंकड़ों का महत्व
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आदित्य नरेन्द्र
जब भी कभी चुनाव परिणाम आते हैं आरोपों-प्रत्यारोपों का नया दौर शुरू हो जाता है। दरअसल इसके पीछे जहां एक ओर सत्तारूढ़ या विजयी पार्टी की मंशा अपना प्रभुत्व दिखाने की होती है वहीं पराजित पार्टी के लिए जरूरी होता है कि वह अपने समर्थकों का मनोबल बनाए रखे। इसके लिए दोनों पक्षों पर जनमत का विश्लेषण कुछ इस तरह करने का दबाव होता है जिससे उन्हें लाभ मिलता दिखाई दे। अभी हाल ही में सम्पन्न गुजरात चुनावों के बाद लगभग यही दृश्य सामने आ रहा है। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है जब भाजपा और कांग्रेस हार-जीत की व्याख्या अपने-अपने ढंग से करने में जुटी हैं। ऐसी कवायद वह पहले भी कई मौकों पर कर चुकी हैं।
फिर भी यह कहना गलत नहीं होगा कि गुजरात का चुनाव परिणाम दोनों प्रमुख दलों के लिए अप्रत्याशित था। कांग्रेस इस बार गुजरात में जीत की उम्मीद लगाए बैठी थी। राहुल गांधी देवी-देवताओं से लेकर ओबीसी, पाटीदारों, दलितों, नोटबंदी और जीएसटी से नाराज लोगों को मनाने में जुटे थे। जहां तक भाजपा का सवाल है तो उसने न जाने क्या सोचकर अपने लिए 150 सीटों पर जीत का लक्ष्य निर्धारित किया था। चुनाव परिणाम आने पर यह लक्ष्य हवाहवाई निकला और पार्टी महज दो अंकों में सिमट कर रह गई। हालांकि भाजपा समर्थक यह सोचकर खुश हैं कि कम अंतर से ही सही भाजपा राज्य में एक बार फिर से सरकार बनाने जा रही है। गुजरात को संघ के हिन्दुत्व की प्रयोगशाला कहा जाता है। यहां पर भाजपा की हार की गूंज 2019 के लोकसभा चुनावों तक सुनाई देती। फिलहाल ऐसी स्थिति नहीं आई। लेकिन दोनों दलों के नेताओं ने एक-दूसरे को निशाने पर ले रखा है। कांग्रेस जहां हार कर भी खुद को जीता हुआ साबित करने पर जुटी है वहीं भाजपा उस पर तंज कस रही है कि राहुल साम, दाम, दंड, भेद की सारी नीतियां अपनाने के बाद भी गुजरात नहीं जीत सके। वह चाहते हैं कि कांग्रेस स्पष्ट रूप से स्वीकार करे कि वह गुजरात में चुनाव हार गई है। सवाल यह है कि राहुल ऐसा क्यों करेंगे जबकि राज्य में भाजपा को उन्होंने अच्छी-खासी टक्कर दी है। आगामी लोकसभा चुनावों को देखते हुए अब दोनों दलों में गुजरात चुनावों को लेकर मंथन होना लाजिमी है। फिर भी कुछ मोटे-मोटे आंकड़े इन दोनों दलों को हुए फायदे-नुकसान की तस्वीर बयां कर रहे हैं। कांग्रेस 61 से बढ़कर 77 सीटों पर आ गई जबकि भाजपा 99 पर सिमटकर रह गई। लगभग साढ़े पांच लाख लोगों ने नोटा का बटन दबाकर बताया कि वह किसी भी उम्मीदवार को वोट देना नहीं चाहते। इन मतदाताओं ने यदि स्पष्ट रूप से किसी एक पार्टी के पक्ष में मतदान किया होता तो आज निश्चित रूप से गुजरात विधानसभा की तस्वीर अलग होती। क्योंकि लगभग दो दर्जन सीटें कम अंतर से हारी या जीती गई हैं। हालांकि राज्य में भाजपा के 22 साल के शासन के बाद भी पार्टी को लगभग एक फीसदी वोट पिछली बार के मुकाबले ज्यादा मिला है लेकिन लोकसभा चुनावों में मिले 60 फीसदी वोटों से यह काफी कम है। इस बार उसे 49.1 फीसदी वोट पड़े हैं। जबकि कांग्रेस को पिछली बार के मुकाबले तीन फीसदी वोट ज्यादा मिले हैं। एक समय ऐसा लग रहा था कि पटेल भाजपा का साथ छोड़ रहे हैं ऐसे में पटेल बाहुल्य 40 में से 21 सीटों पर भाजपा की जीत से पार्टी समर्थक राहत की सांस ले सकते हैं। कोली बहुल्य सीटों पर भी लड़ाई कांटेदार रही। शहरी इलाकों में भाजपा ने आशानुरूप प्रदर्शन करने के साथ-साथ कांग्रेस के गढ़ रहे आदिवासी इलाकों में भी बेहतर प्रदर्शन किया। उधर कांग्रेस ने भी कई भाजपाई प्रभुत्व वाले क्षेत्रों में कामयाबी के साथ सेंध लगाई। राहुल गांधी ने ढाई-तीन महीने तक गुजरात में मेहनत की। उन्होंने इस बार एक मेहनती और परिपक्व राजनेता के रूप में लोगों के सामने आने का प्रयास किया है। वह मोदी के करिश्माई नेतृत्व से टक्कर लेने के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं। गुजरात के चुनाव परिणामों ने उन्हें ढांढ्स बंधाया है। नीतीश कुमार के भाजपाई खेमे में जाने के बाद अब विपक्ष लोकसभा चुनावों के लिए राहुल पर दांव लगाने का प्रयास कर सकता है। वैसे भी विपक्ष में न तो कांग्रेस के मुकाबले की कोई पार्टी है और न ही राहुल के कद का कोई स्वीकार्य नेता। गुजरात चुनाव इसीलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वह संपूर्ण विपक्ष को राहुल के पीछे खड़ा कर सकते हैं जबकि भाजपा को विपक्ष का बिखराव ज्यादा रास आता है। जहां तक भाजपा की बात करें तो इन चुनावों ने उसे अपनी कमजोरियां पहचानने का एक मौका दिया है। गरीबों, युवाओं और किसानों की समस्या को अब उसे और भी ज्यादा तेजी से हल करना होगा। उसके पास सिर्फ एक साल का समय बचा है। उम्मीद है कि आगामी बजट में हमें इसकी झलक दिखाई देगी।
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