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जाति-संप्रदाय से मुक्त भारत का सपना

👤 Veer Arjun Desk 4 | Updated on:10 Jan 2018 5:38 PM GMT
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बसंत कुमार

प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने मन की बात में वर्ष 2017 के आखिरी संबोधन में कहा कि देश का नवनिर्माण देश के युवा करेंगे और न्यू इंडिया जातिवाद, संप्रदायवाद से मुक्त होगा। उन्होंने अपने दृढ़संकल्प को पुन दोहराया कि भारत को जातिवाद, सांप्रदायवाद, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, गंदगी और गरीबी से मुक्त बनाऊंगा। उन्होंने आगे दोहराया कि हमारे न्यू इंडिया विजन में सबको समान अवसर होगा और देश की अखंडता व एकता हमारी मुख्य ताकत होगी। उन्होंने अपने संबोधन में सिविल सेवा परीक्षा में टाप करने वाली कश्मीरी युवती अंजुम बशीर खान का उदाहरण दिया जिसने आतंकवादियों द्वारा तमाम यातनाओं के पश्चात बिना विचलित हुए अपना लक्ष्य प्राप्त किया।
जिस दिन प्रधानमंत्री जी ने जाति विहीन, संप्रदायविहीन, आतंकवाद भ्रष्टाचार मुक्त समाज की स्थापना हेतु आह्वान किया दुर्भाग्यवश उसके एक दिन पश्चात महाराष्ट्र के पुणे शहर में भीमा-कोरेगांव में मराठा और दलितों के बीच एक कार्यक्रम के दौरान हिंसा झड़प हो गई। जातीय हिंसा की यह आग पुणे में सीमित न रहकर महाराष्ट्र के दूसरे हिस्सों में फैल गई। मुंबई, पुणे, औरंगाबाद, अहमदनगर, हड़पसर और फुरसंगी में प्रदर्शनकारी सड़कों पर उतर आए और कई बसों और गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया गया। रेल पटरियों पर उपद्रवी बैठ गए जिससे रेल और बस सेवाएं दोनों प्रभावित हुई जिससे अपने काम-धंधे पर जाने वाले भोले-भाले नागरिकों को भारी असुविधा का सामना करना पड़ा।
इस हिंसा की शुरुआत 200 वर्ष पूर्व पेशवा बाजीराव की ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों हुई हार का जश्न मनाने हेतु इकट्ठा हुए दलितों के मराठाओं द्वारा विरोध के कारण हुआ। एक जनवरी 1818 के दिन अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी और पेशवा बाजीराव द्वितीय के विरुद्ध भीमा-कोरेगांव में युद्ध हुआ। इस युद्ध में पेशवा बाजीराव द्वितीय की ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों पराजय हुई थी। इस युद्ध की विशेषता यह थी कि जहां पेशवा की सेना में बड़ी संख्या में मराठा थे वहीं ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में बड़ी संख्या में दलित शामिल थे। भारतीय रूढ़िवादी वर्ण व्यवस्था में उस समय दलितों/शूद्रों को समाज की सेवा करने के अतिरिक्त सब कुछ वर्जित था।
दलित न तो वेदों आदि का अध्ययन ही कर सकता था और न ही वेद को सुन सकता था। मनुस्मृति के विधान के अनुसार यदि कोई शूद्र वेद पुराण सुन लेता था तो उसके कान में शीशा पिघला कर डालने की बात कही गई थी। अस्त्र धारण करना भी शूद्रों हेतु वर्जित था और इसी विकृति का फायदा उठाकर ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी सेना में भारी संख्या में दलितों को भर्ती किया और दलितों की बहुलता वाली ईस्ट इंडिया कंपनी के सेना ने पेशवा बाजीराव की सेना को परास्त किया। यह प्रश्न विचारणीय है कि यदि दलितों को पेशवा की सेना से लड़ने का अवसर दिया गया होता तो सन 1818 में ही ईस्ट इंडिया कंपनी हार जाती और भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का विस्तार ही न हो पाता। परन्तु मनुवादी मानसिकता से ग्रसित मराठाओं ने 1818 में हार जाने से पूर्व 1786 में मैसूर के टीपू सुल्तान के विरुद्ध संयुक्त मोर्चे में ईस्ट इंडिया कंपनी और हैदराबाद के निजाम के साथ शामिल न होते तो 1790 के दशक में ही भारत से ईस्ट इंडिया कंपनी का सफाया हो गया होता और सन 1818 में भीम-कोरेगांव में न पेशवा बाजीराव हारते और न ही वहां पर प्रत्येक वर्ष मराठाओं की हार का जश्न मनता।
पेशवा बाजीराव की भीमा-कोरेगांव में हुई पराजय की घटना के 200 वर्ष पूरा होने के उपलक्ष्य में कार्यक्रम आयोजित किया गया। इसमें आयोजकों में केंद्रीय मंत्री श्री रामदास अठवाले, महाराष्ट्र के नागरिक आपूर्ति मंत्री गिरीश बापट, भाजपा के सांसद अमर सामले आदि नेता थे। कार्यक्रम की सूचना पाकर मराठा समुदाय के लोग भी वहां पहुंच गए और कार्यक्रम के आयोजन का विरोध किया। परिणामस्वरूप दोनों समुदायों के बीच पथराव शुरू हो गया। इस जातीय आंदोलन को राजनीतिक रंग देने हेतु कांग्रेस भी मैदान में आ गई और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा `ऊना, रोहित-वेमुला और अब भीम- कोरेगांव प्रतिरोध के सशक्त प्रतीक हैं। आरएसएस और भाजपा का फासीवादी नजरिया यही है कि दलितों को भारतीय समाज में निम्न स्तर पर ही बने रहना चाहिए।' जैसा कि हम सभी जानते हैं कि गुजरात में जातीय आंदोलन की परछाईं में कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों में भाजपा के समक्ष कड़ी चुनौती पेश की थी।
यह जातीय आंदोलन 1.1.2018 को मात्र भीमा-कोरेगांव या महाराष्ट्र तक ही सीमित नहीं रहा। छह एवं सात को मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में इन आयोजकों ने लगभग एक लाख की भीड़ इकट्ठा की जिसको आयोजित करने में जिग्नेश मेवाणी, उमर खालिद, प्रकाश अम्बेडकर, कई ईसाई मिशनरी, कई लेफ्ट पार्टियों, कुछ ओबीसी नेताओं ने सहयोग किया। उसी प्रकार इन लोगों ने नई दिल्ली में नौ जनवरी को मीटिंग के आयोजन के नाम पर अफरातफरी का माहौल बना दिया।
ये लोग दलित, मुसलमान और अतिपिछड़ा के नाम पर सत्ता में आने का स्वप्न देख रहे हैं। ये 200 वर्ष पूर्व हुए युद्ध का उत्सव मनाना तो नहीं भूलते परन्तु क्या इन लोगों ने कभी द]िलतों एवं वंचितों को समाज की मुख्यधारा में शामिल करने के लिए कभी कोई रचनात्मक कार्य किया है? ये तो सिर्प अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन पुन पाने के लिए इन भोले-भाले दलितों को इस्तेमाल करते हैं और उन्हें हिंसा में झोंक देते हैं। कैसी त्रासदी है कि देश में कभी राजपूत अस्मिता, कभी पटेल अस्मिता, कभी ब्राह्मण अस्मिता, कभी दलित अस्मिता के नाम पर बड़े-बड़े आयोजन होते हैं, कभी-कभी ये आयोजन हिंसक आंदोलन का रूप ले लेते हैं परन्तु सरकारें मूकदर्शक बनी रहती हैं क्योंकि इस प्रकार के आयोजन व आंदोलन राजनीतिक दलों को उनकी सुविधा के अनुसार नफा-नुकसान देते हैं। इस कारण कोई भी राजनीतिक दल जातीय दंगों को रोकना नहीं चाहता। भारत ही पूरे विश्व में मात्र ऐसा देश है जहां राजनीतिक व संवैधानिक पद व्यक्ति की योग्यता व अनुभव के स्थान पर इस तथ्य पर निर्भर करता है कि वह किस जाति में पैदा हुआ है और उस जाति से संबंध रखने वाला व्यक्ति किसी राजनीतिक दल के लिए कितना फायदेमंद रहेगा।
आज राज्यों के मुख्यमंत्री अपनी जातीय आधार पर चुने जाते हैं। अभी सम्पन्न हुए विधानसभा चुनावों में जाति और धर्म का जिस प्रकार का इस्तेमाल हुआ वह किसी से छिपा नहीं है उसी की परिणित महाराष्ट्र के हिंसक आंदोलन के रूप में हुई है दोनों ही राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को उमर खालिद जैसे अलगाववादी, जिग्नेश मेवाणी, प्रकाश अम्बेडकर एवं वामपंथियों की मंशा को समझना होगा अन्यथा भारतीय लोकतंत्र को रसातल में पहुंचने से कोई नहीं रोक पाएगा। क्योंकि ये लोग छद्म धर्मनिरपेक्षता की आड़ में देश व समाज को टुकड़ों में बांट देंगे।
(लेखक एक पहल नामक एनजीओ के राष्ट्रीय महासचिव हैं।)

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