Home » द्रष्टीकोण » सर्वोच्च न्यायालय विवाद सड़कों पर क्यों?

सर्वोच्च न्यायालय विवाद सड़कों पर क्यों?

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:17 Jan 2018 2:21 PM GMT
Share Post

बसंत कुमार

स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार चार जजों ने प्रेस कांफ्रेंस करके सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की प्रशासनिक कार्यशैली पर सवाल उठाए। प्रेसवार्ता के पश्चात इन न्यायाधीशों ने एक पत्र जारी किया जिसमें मुख्य न्यायाधीश के ऊपर काफी गंभीर आरोप लगाए गए हैं। मुख्य न्यायाधीश को संबोधित सात पन्नों के पत्र में जजों ने कुछ मामलों के एसाइनमेंट को लेकर नाराजगी जताई है। इन जजों का आरोप है कि मुख्य न्यायाधीश द्वारा कुछ विशेष प्रकार के मामलों को कुछ चुनिन्दा बेंचों और जजों को दिया जाता है। सर्वोच्च न्यचायालय के चार वरिष्ठ न्यायाधीशोंöजस्टिस चेलमेश्वर, जस्टिस गोगोई, जस्टिस लोकुर और जस्टिस कुरियन ने राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण-संवेदनशील मामलों को रोस्टर प्रणाली के मौजूदा नियमों का उल्लंघन करके खास पीठ के हवाले करने के प्रधान न्यायाधीश के फैसले को अवांछित बताकर सवाल खड़े किए हैं। इन न्यायाधीशों ने खुलकर बताया कि किस प्रकार मुख्य न्यायाधीश ने इस संबंध में दो माह पूर्व लिखे पत्र को नजरंदाज करते हुए कार्यवाही करने से इंकार कर दिया। जिसमें इन न्यायाधीशों ने माननीय मुख्य न्यायाधीश को अपनी चिन्ता से अवगत कराया था। चार वरिष्ठ न्यायाधीशों द्वारा इस प्रकार के संवाददाता सम्मेलन आयोजित करने के अप्रत्याशित कदम से भारतीय न्यायपालिका की निष्पक्षता व पारदर्शिता पर सवाल उठने लगे हैं। यद्यपि सरकार ने इसे न्यायपालिका का अंदरूनी मामला करार दिया है परन्तु दूसरी ओर देश के अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा कि वरिष्ठ न्यायाधीश इस मसले पर संवाददाता सम्मेलन बुलाने जैसी स्थिति से बच सकते थे।
प्रधान न्यायाधीश के प्रति अपने असंतोष को सार्वजनिक रूप से जताने के फैसले को उचित ठहराते हुए जस्टिस गोगोई ने कहा कि संवाददाता सम्मेलन बुलाना अनुशासन भंग करना नहीं बल्कि राष्ट्र का कर्ज उतारना है। जस्टिस चेलमेश्वर ने कहा कि वह लोग स्वतंत्र भारत और संवैधानिक संस्था के इतिहास में अभूतपूर्व होने वाली इस घटना को आयोजित करने हेतु बाध्य हो गए थे। पत्रकारों ने जब विस्तार से जानकारी देने पर जोर दिया तब जस्टिस गोगोई ने कहा कि यह एक केस के (खास पीठ को) आवंटन का मुद्दा है। बाद में उन्होंने इस बात की पुष्टि की कि यह सोहराबुद्दीन शेख हत्या मामले की सुनवाई करने वाले न्यायाधीश श्री बीएच लोया की एक दिसम्बर 2014 को हुई मौत से जुड़ी जनहित याचिका थी। इस मामले में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अमित शाह भी एक आरोपी थे जिसे बाद में बरी कर दिया गया। पत्र में आगे उन घटनाओं का उल्लेख किया गया जब प्रधान न्यायाधीश ने राष्ट्र और संस्थान पर दूरगामी असर डालने वाले केस बिना किसी तार्पिक आधार के अपनी प्राथमिकता के हिसाब से अपनी चुनिन्दा पीठों को चुनकर आवंटित किया। यद्यपि विधि के जानकार यह मानते हैं कि कौन-सा केस किस पीठ को सौंपा जाए इसका अधिकार मुख्य न्यायाधीश का है क्योंकि मुख्य न्यायाधीश मास्टर ऑफ रोस्टर हैं और मुख्य न्यायाधीश अपने विवेक से गठन और संख्या के आधार पर किसी केस को किसी पीठ को सुनवाई के लिए सौंप सकता है।
परन्तु यह चारों न्यायाधीश इस विषय में अलग राय रखते हैं। इनके अनुसार देश की न्याय व्यवस्था में यह बात अच्छी तरह प्रतिपादित है कि प्रधान न्यायाधीश का स्थान बराबरी का दर्जा रखने वाले लोगों में केवल प्रथम है और उन्हें अपने सहयोगियों पर वैधानिक या तथ्यात्मक रूप से कोई सर्वोच्च अधिकार प्राप्त नहीं है। केसों के आवंटन में मुख्य न्यायाधीश के आवंटन का मान रखते हुए गठन और संख्या, दोनों के हिसाब से उपयुक्त पीठों को केस सौंपना चाहिए। परन्तु क्या इस प्रकार से चार वरिष्ठ न्यायाधीशों द्वारा न्यायपालिका के अंदरूनी मामले को बाहर ले जाने से न्यायालय की प्रतिष्ठा को धक्का नहीं लगा है, देश की जनता भारत की न्याय व्यवस्था में अटूट आस्था रखती है। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि न्यायाधीशों के बीच मतभेद रहते हैं और न्यायालयों के ऊपर भी कई प्रकार के आरोप लगते रहे हैं परन्तु यह सब बातें अंदर रहती हैं। न्यायालय की पारदर्शिता निष्पक्षता के ऊपर अवांछित कमेंट्स देने पर लोगों पर अवमानना के लिए केस चले हैं। परन्तु यदि इस तरह से प्रेस कांफ्रेंस के माध्यम से न्यायालय के अंदर की बातें बाहर आएंगी तो लोगों का भरोसा न्यायपालिका से उठ जाएगा। जो मुद्दे आज तक न्यायाधीशों की परस्पर चर्चा में उठाए जाते रहे हैं वह प्रेस कांफ्रेंस के माध्यम से बाहर उठाए जाने लगेंगे। इससे न्यायपालिका में बाहरी हस्तक्षेप बढ़ेगा और न्यायालय की विश्वसनीयता भी प्रभावित होने की आशंका पैदा हो जाएगी। इससे पूर्व कोलकाता उच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीश सीएस कर्णन ने बंद लिफाफे में उच्च न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार का मामला उठाते हुए 20 न्यायाधीशों के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी।
यदि उस समय उनकी शिकायत पर ध्यान दे दिया गया होता तो शायद यह नौबत नहीं आती। उलटे जस्टिस कर्णन को न्यायालय की मानहानि के चक्कर में जेल की हवा खानी पड़ी। पता नहीं तब इन जजों की अंतरात्मा क्यों नहीं जागी। जस्टिस गोगोई जो अपनी प्रेस कांफ्रेंस के लिए राष्ट्र धर्म की दुहाई दे रहे हैं। वे जजों पर लगने वाले भ्रष्टाचार के मामले में चुप क्यों रहे। पर सवाल यह उठता है कि कोई केस किस बेंच में जाए इससे स्थिति इतनी विकट हो गई थी कि न्यायाधीशों को स्वनिर्धारित मर्यादाओं का उल्लंघन करके प्रेस कांफ्रेंस करनी पड़ी। जब जस्टिस कर्णन के केस पर फैसला लेने की बात आई तो सात सबसे वरिष्ठ जजों की बेंच को चुना गया परन्तु जब राष्ट्रीय महत्व के अन्य मसले विचार के लिए आते हैं तो इस तरह का सिद्धांत क्यों नहीं अपनाया जाता। जबकि भ्रष्टाचार के मामले में चाहे वह न्यायपालिका हो, कार्यपालिका हो या सरकार के विभाग हो जीरो टालरेंस होनी चाहिए। परन्तु जस्टिस कर्णन के भ्रष्टाचार के आरोपों को जिस प्रकार से लिया गया वह सचमुच ही दुर्भाग्यपूर्ण है। इन न्यायाधीशों द्वारा न्यायपालिका के अंदर की बात प्रेस कांफ्रेंस के माध्यम से बाहर लाना कितना हास्यास्पद है। इस समय सर्वोच्च न्यायालय में 25 जज हैं तो क्या ये चार जज क्या अपने आप अन्य 21 जजों से बेहतर हैं या राष्ट्र की उनसे अधिक चिन्ता करते हैं। यह प्रेस कांफ्रेंस करके इन माननीय न्यायाधीशों ने जाने-अनजाने माननीय सर्वोच्च न्यायालय की प्रतिष्ठा पर धब्बा लगाया। यदि कोई मसला है तो भी उसे उचित स्तर पर उठाया जाना चाहिए। यदि मुख्य न्यायाधीश से मुलाकात के बाद इस विवाद का हल नहीं निकला तो इसे राष्ट्रपति के समक्ष उठाया जाना चाहिए था न कि मीडिया के माध्यम से इसे सड़क पर लाया जाए।
(लेखक एक पहल नामक एनजीओ के राष्ट्रीय महासचिव हैं।)

Share it
Top