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शांति को समर्पित आस्मा

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:20 Feb 2018 2:25 PM GMT
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कुलदीप नैयर

आस्मा जहांगीर, जो पिछले सप्ताह गुजर गई, एक लोकपिय मानवाधिकार वकील और सामाजिक कार्यकर्ता थीं। वैसे उसका काम पाकिस्तान तक सीमित था, पूरे उपमहाद्वीप में उसकी मिसाल दी जाती थी। उसने व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा के लिए ह्यूमन राइट्स कमीशन स्थापित करने की घोषणा जिस जगह से की थी वह भारत और पाकिस्तान के बीच संबंध सुधारने के लिए बै"क करने की जगह भी बन गई थी।
आस्मा भारत और पकिस्तान के लड़के-लड़कियों को उस आवास पर जमा करती थी जो संसद के सदस्य के रूप मुझे मिला हुआ था। मैं देखता था कि आस्मा समाज पर धर्म के असर को बदलने के लिए पूरी कोशिश करती थी। धर्म में राजनीति मिलाना ही समस्याओं के विनाश की वजह थी।
कुछ दिनों पहले ही उसने मुझे लाहौर से टेलीफोन कर बताया था कि बेटी की शादी कर देने के बांद अब उसके पास भारत और पाकिस्तान के बीच संबध सुधारने के लिए काम करने के लिए ज्यादा समय रहेगा। शायद यह उसके कहने का तरीका था कि एक धर्म की ओर झुके समाज को बदलने के लिए उसे अभी मीलों जाना है।
आस्मा को इस बात का संतोष हो सकता है कि उसने भारत और पाकिस्तान को सहमति की ओर लाया था, भले ही नजदीक आने में उनकी हिचकिचाहट साफ दिखाई देती हो। आस्मा ने नई दिल्ली और इस्लामाबाद को यह महसूस कराया कि आमने-सामने बै"कर इस पर चर्चा का कोई विकल्प नहीं है कि वे अपना झगड़े क्यों नहीं खत्म कर सकते। वैसे नई दिल्ली ने तय कर लिया था कि पाकिस्तान जब तक आतंकियों को शरण देना बंद नहीं करता तब तक कोई बातचीत नहीं होगी, आस्मा का मानना था कि सुलह की अब भी कुछ गुंजाइश थी।
लेकिन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज इस बारे में स्पष्ट थीं कि जब तक यह महसूस नहीं किया जाता कि आतंक और बातचीत साथ-साथ संभव नहीं हैं, नई दिल्ली इस्लामाबाद से बातचीत नहीं करेगी। आस्मा महसूस करती थी कि कोई सार्थक बै"क करने कें पहले पाकिस्तान की सेना के साथ कुछ समस्याएं हैं जिन्हें दूर करनी पड़ेगी। वह ऐसी बै"क को लेकर काफी सकारात्मक थी और किसी तरह सत्ताधारियों को इसके औचित्य को समझने के लिए राजी कर सकती थी।
लेकिन मुझे निराशा है कि आस्मा की मौत पर भारत में बहुत कम पतिक्रिया हुई जबकि उसने भारत से दुश्मनी की कसम खाई पाकिस्तान की सेना को चुनौती दी थी। भारत और पाकिस्तान के संबंध बेहतर बनाने को लेकर उसका समर्पण उत्साहवर्धक था। मैंने सदैव उसकी कोशिशों को समर्थन दिया।
राज्यसभा के सदस्य के रूप में मुझे लोदी एस्टेट में एक आवास दिया गया था जहां वह पाकिस्तान के लड़के-लड़कियों को हिंदुस्तान के लड़के-लड़कियों से मिलाने के लिए लाती थी। उसने उस जगह का नाम पाकिस्तान हाउस रख दिया था। भारत के लड़के-लड़कियों से विदा लेते वक्त पाकिस्तान के बच्चे-बच्ची आंसू बहाते थे। वह एक खास धर्म की ओर झुकते समाज से सीख लेने के लिए भारत के युवाओं को भी पाकिस्तान ले जाती थी।
पाकिस्तान के मानवाधिकार और पतिरोध की पतीक आस्मा चार दशकों से ज्यादा समय से सैनिक तानाशाहों की पबल विरोधी थी। वह भारत-पाकिस्तान शांति की भी पबल समर्थक थी और भारत के साथ बातचीत के लिए कई अनौपचारिक पतिनिधिमंडल का हिस्सा थी। इतना ही नहीं, जब उसने न्यायपालिका में बतौर एक वकील काम करना शुरू किया तो उसका एक उल्लेखनीय कैरियर रहा। इससे उसकी लोकपियता का संकेत मिलता है कि वह पाकिस्तान के सुपीम कोर्ट बार एसोसिएशन की पमुख थी।
अभी भी पाकिस्तान की न्यायपालिका उसे इसके लिए याद करती है जब वह इफ्तिखार चौधरी, जो पाकिस्तान के सुपीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे, के सम्मान को वापस लाने के लिए लड़ी थी। वकीलों के आंदोलन ने अंत में अपना लक्ष्य हासिल किया और यह राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के पतन का कारण भी बना। उस अभूतपूर्व आंदोलन ने इस बात की उम्मीद बंधाई कि पाकिस्तान लोकतंत्र के महत्व और उसकी बहाली के महत्व को सचमुच समझ रहा है। लेकिन फिर पाकिस्तान में हर शासक का ध्यान इसी पर रहता है कि सेना उसके साथ क्या करेगी और अभी के लिए भी यही सच है।
मुझे याद है अस्सी के दशक में आस्मा का मार्शल लॉ पशासक जनरल जिया उल हक से टक्कर लेना जब वह पाकिस्तान में लोकतंत्र की बहाली के आंदोलन में भिड़ी थी। विरोध के आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए उसे जेल में बंद कर दिया गया, लेकिन इसके शीघ्र बाद वह एक पहले दर्जे की आंदोलनकारी बन गई। कई बार उसकी उपलब्धियां नीलाम होने को थे, लेकिन अडिग होकर उसने इन खतरों का सामना किया और तानाशाहों के खिलाफ खड़ी रही। इस पक्रिया में उसने पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग की स्थापना करने में मदद की और बाद में इसका अध्यक्ष भी बनी। वह अकसर कहा करती थी कि अल्पसंख्यकों की रक्षा करना आयोग का कर्तव्य है। उसकी सदारत में आयोग ने ईश्वर-निंदा के साथ-साथ परिवार के कथित सम्मान के लिए की जाने वाली हत्याओं के आरोपों को सफलतापूर्वक रोका।
आस्मा ने अपने देश में महिलाओं के अधिकारों के आंदोलन की अगुआई भी उस समय की जब पाकिस्तान में मानवाधिकार को मुद्दा ही नहीं समझा जाता था। आस्मा के कारण आज लोग, खासकर औरतें, अपने अधिकारों की बात करते हैं और धार्मिक पार्टियों समेत राजनीतिक पार्टियां भी औरतों के अधिकारों के महत्व को को महसूस करती हैं। इसका श्रेय आस्मा को जाता है।
एक खास मुद्दे को, जिसे आस्मा ने उ"ाया था वह ईसाइयों पर ईश्वर-निंदा के आरोपों का था। अल्पसंख्यक समुदाय के बहुत सारे लोगों को मौत की सजा का सामना करना पड़ता था क्योंकि ईश्वर-निंदा के अपराध के लिए कड़ी से कड़ी सजा का पावधान है। वह लापता लोगों को ढूंढ निकालने के मुकदमों को भी मुफ्त में लड़ती थी। एक दयालु हृदय वाली आस्मा कट्टरपंथियों की धमकियों समंत किसी तरह के दबाव के सामने नहीं झुकती थी।
पूरी दुनिया में लोकपिय, आंदोलनकारी आस्मा को रमन मैंगासेसे और यूनाइटेड नेशंस ह्यूमन डेवलपमेंट फंड पुरस्कार के अलावा कई पुरस्कार मिले थे। लेकिन आस्मा के लिए पुरस्कारों का कोई मतलब नहीं था क्योंकि उसका एक ही उद्देश्य था अपने देश में लोकतंत्र की बहाली करना जिसमें उसकी अडिग आस्था थी।
इसी तरह आस्मा ने सिर्प पाकिस्तान के लेगों के लिए ही नहीं बल्कि फिलीस्तीन या दूसरी जगह के संघर्षों समेत पूरी दुनिया के लेगें के लिए लड़ाई लड़ी। बेशक उसने अपने संघर्षों के कारण अपने देश में बहुत सारे दुश्मन बनाए, लेकिन उसका मानना था कि इन चुनौतियों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है। यह आस्मा के बारे में काफी कुछ बयान करता है।

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