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टीडीपी ने लगाए विपक्ष की उम्मीदों को पंख

👤 Veer Arjun Desk 3 | Updated on:18 March 2018 7:42 PM GMT

टीडीपी ने लगाए विपक्ष की उम्मीदों को पंख

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पिछले तीन साल से भी ज्यादा समय से भाजपा और मोदी सरकार को घेरने का पयास कर रहे विपक्ष को खुश होने का एक और अवसर मिला है। जीतन राम मांझी के बाद 15 लोकसभा सांसदों वाली तेलगु देशम पार्टी (टीडीपी) एनडीए गठबंधन से बाहर आ गई है और उसने सरकार के खिलाफ अविश्वास पस्ताव का नोटिस दे दिया है। ऐसा ही नोटिस आंध्र की दूसरी पमुख पार्टी वाईएसआर कांग्रेस ने भी दिया है। बदले हुए इस राजनीतिक घटनाकम से विपक्ष खासतौर पर कांग्रेस की उम्मीदों को पंख लगते दिखाई दे रहे हैं। हालांकि टीडीपी और वाईएसआर दोनों मिलकर भी सरकार के खिलाफ अविश्वास पस्ताव नहीं ला सकतीं क्योंकि इसके लिए पचास सांसदों के समर्थन की जरूरत होगी। इन दोनों पार्टियों के इस विरोध को हवा देने के लिए कांग्रेस और सीपीएम जैसे दल इनके समर्थन में आगे आते दिख रहे हैं। इनकी कोशिश है कि भाजपा और उसकी बड़ी सहयोगी पार्टियों के बीच इतनी दूरी हो जाए कि 2019 के आम चुनाव में भाजपा लगभग अकेली रहकर चुनाव लड़ने को मजबूर हो जाए। विपक्ष भाजपा की ऐसी नकारात्मक छवि बनाने में जुटा है कि उसके नेता अपनी सहयोगी पार्टियों की भी नहीं सुनते। ऐसा कहते हुए वह इस बात को भूल जाते हैं कि भाजपा ने पूर्ण बहुमत मिलने के बाद भी सहयोगी दलों को सत्ता में हिस्सेदार बनाया था।
दरअसल टीडीपी और भाजपा में मनमुटाव आंध्र पदेश के लिए विशेष राज्य का दर्जा देने को लेकर है। टीडीपी चाहती है कि आंध्र को विशेष राज्य का दर्जा मिले। लेकिन 14वें वित्त आयोग के अनुसार उसे यह दर्जा देना संभव नहीं। यहां बात सिर्प आंध्र की नहीं है। बिहार जैसे कई और राज्य अपने लिए भी विशेष राज्य की मांग कर रहे हैं। आंध्र को यह सुविधा पदान करने का मतलब भानुमति का पिटारा खोलना होगा। हालांकि केंद्र आंध्र को इसकी भरपाई करने के लिए तैयार था। वह इसके लिए एक फार्मूला बनाने के लिए कह रहा था लेकिन आंध्र सरकार इस पर राजी नहीं थी क्योंकि वाईएसआर कांग्रेस और पवन कल्याण की जनसेना इस मुद्दे पर अच्छा खासा जनसमर्थन जुटाने में कामयाब हो रही है। इसके चलते टीडीपी को अपनी जमीन खिसकने का अंदेशा सता रहा है। सत्तारूढ़ दल होने के नाते उसे एंटी इंकमबैंसी का भी डर है। ऐसे में उसके पास केंद्र पर हमलावर होने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है।
इसी बीच उत्तर पदेश और बिहार के उपचुनावों में विपक्ष की जीत ने मोदी विरोधी पार्टियों में एकता की सुगबुहाहट तेज कर दी है। अखिलेश मायावती से मिलने जा पहुंचे तो शरद यादव-राहुल गांधी तथा केसीआर-ममता बनर्जी की मुलाकात ने भी सुर्खियां बटोरीं। कुछ पार्टियां ऐसी हैं जो भाजपा विरोध के आधार पर विपक्षी मोर्चा खड़ा करना चाहती हैं लेकिन कुछ पार्टियां ऐसी भी हैं जो कांग्रेस और भाजपा दोनों से समान दूरी बनाकर चलना चाहती हैं। जाहिर है कि उनमें बड़ा अंतर्विरोध है। सिर्प मोदी विरोध के नाम पर की गई एकता को लोग किस रूप में लेंगे यह भी अभी स्पष्ट नहीं है। एक और सवाल नेतृत्व का भी है। मोदी के मुकाबले गठबंधन का चेहरा कौन बनेगा। इसका फैसला समय आने पर किया जाएगा यह कहकर क्या बात को टाल दिया जाएगा। ममता बनर्जी के तेवर बताते हैं कि वह विपक्ष का नेतृत्व करने के लिए आगे आने का पयास कर रही हैं। उनकी राजनीतिक महत्वकांक्षा को कांग्रेस और वामपंथी पार्टियां किस रूप में लेंगी विपक्षी एकता के लिए यह भी एक बड़ा सवाल है। विपक्षी एकता में सीटों के लेन-देन की भूमिका भी महत्वपूर्ण होगी। किसी भी राजनीतिक दल के लिए अपने पभाव क्षेत्र की सीटें छोड़ना आसान नहीं होता। इससे उस क्षेत्र में काम रहे कार्यकर्ताओं को निराशा हाथ लगती है। निराश नेता या कार्यकर्ता अगर दुश्मन के खेमे में चले गए तो `चौबे जी बनने चले थे छब्बे जी रह गए दूबे जी' वाली स्थिति से भी दो-चार होना पड़ सकता है। उपचुनावों में भाजपा की हार से विपक्ष को ढांढ़स तो मिला है लेकिन न तो उसकी चुनौतियां कम हुई है और न ही उसका भ्रम टूटा है। विपक्षी एकता का संदेश लेकर घूम रहे विपक्षी दल जब तक इस तथ्य को नहीं समझेंगे कि उपचुनावों और आम चुनावों में जमीन-आसमान का फर्प होता है तब तक उनकी सफलता संदिग्ध रहेगी। उनके पास मोदी जैसा कोई करिश्माई नेता नहीं है। आज गुजरात में मोदी की वजह से ही एक बार फिर भाजपा सत्ता में लौटी है। जिन उपचुनावों को लेकर विपक्ष के हौंसले बुलंद हैं उनमें मोदी की कोई भूमिका नहीं थी। यह अलग बात है कि उपचुनावों ने भाजपा और विपक्ष दोनों को अपनी-अपनी रणनीतियों पर विचार करने का एक और मौका दे दिया है। भाजपा यहां से संभलने और विपक्ष खुद को और अधिक मजबूत करने का पयास करेगा। टीडीपी और वाईएसआर का अविश्वास पस्ताव इसमें विपक्ष की मदद कर सकता है। इसके सहारे विपक्ष अपनी एकजुटता दिखाकर सरकार को घेरने का पयास कर सकता है। विपक्षी नेता सोचते है कि इससे सरकार के खिलाफ माहौल बनाने में मदद मिलेगी। इस कवायद से सत्ताधारी दल को कोई नुकसान होने की संभावना नहीं है क्योंकि उसके पास पूरे नंबर हैं। हां इसका नुकसान कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों को जरूर हो सकता है क्योंकि जब सत्ताधारी दल की ओर से संसद में जवाब दिया जाएगा तो इन्हीं दोनों को चुन-चुन कर निशाने पर लिया जाना तय है। फिलहाल तो सत्ता पक्ष और विपक्ष राजनीति की विसात पर अपने-अपने मोहरे चल रहे हैं। अगले राजनीतिक परिदृश्य के लिए कुछ भी आंकलन करना अभी जल्दबाजी होगी। अगले कुछ महीनों में ही स्थिति साफ हो पाएगी तभी अंदाजा लगेगा कि देश किधर जा रहा है।

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