पाक को कहां ले जाएगा सेना और नवाज का टकराव
आदित्य नरेन्द्र
लगता है कि पाकिस्तानी सेना की नवाज शरीफ को सत्ता के केंद्र से बाहर रखने की चाल उलटी पड़ सकती है क्योंकि दोषी ठहराए जाने और सजा मिलने के बावजूद नवाज अपनी बेटी मरियम के साथ पाकिस्तानी सेना के हुक्मरानों से दो-दो हाथ करने वापस अपने देश लौट आए हैं।
नवाज के इस कदम के बाद पाकिस्तान के सैन्य जनरलों और लोकतंत्र समर्थक सिविल सोसाइटी के बीच मुकाबला तय लगता है। पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि सेना और नवाज शरीफ के बीच का यह टकराव आखिर पाकिस्तान को कहां ले जाएगा। इसमें कोई शक नहीं कि आज की तारीख में पाकिस्तान के अंदरूनी हालात बेहद नाजुक हैं। 25 जुलाई को होने वाले आम चुनाव से पहले एक ओर जहां देश के सबसे बड़े राजनेता नवाज शरीफ को भ्रष्टाचार का दोषी ठहराकर उन्हें चुनावी दंगल से बाहर कर दिया गया है वहीं दूसरी ओर देश में जगह-जगह हो रहे बम धमाके नागरिकों को चुनावी प्रक्रिया से दूर रहने के लिए मजबूर कर रहे हैं। पत्नी की नाजुक हालत और अदालत से सजा मिलने के बावजूद नवाज की स्वदेश वापसी बताती है कि वह फौज से टकराव का जोखिम उठाने के लिए तैयार हैं। ऐसा नहीं है कि उनका पहले कभी फौज से टकराव न हुआ हो पर अब यह अपने चरम पर पहुंच गया लगता है। नवाज बाखूबी जानते हैं कि यदि उनकी पार्टी की सरकार बनी तो उन्हें आसानी से क्लीन चिट मिल सकती है। उन्हें उम्मीद होगी कि इन हालात में उन्हें वापसी पर सहानुभूति का फायदा मिलेगा। उधर फौज के सामने भी तमाम मुश्किलें होंगी। सबसे बड़ी मुश्किल तो यही है कि पंजाब पाकिस्तान का सबसे बड़ा सूबा है। राजीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्तर पर उसका प्रभाव होने के साथ-साथ सेना में भी उसका बड़ा दखल है। चूंकि नवाज शरीफ निर्विवाद रूप से पंजाब के सबसे बड़े नेता हैं और सेना में पंजाबियों का प्रभुत्व है।
ऐसे में सेना नवाज से किस तरह निपटेगी यह देखने वाली बात है। उधर नवाज के सामने निशाना साफ है। उनके सामने खुद को पीड़ित के रूप में पेश करने, पार्टी को बचाने और अपनी बेटी मरियम को पार्टी की अगली सर्वमान्य नेता के रूप में स्थापित करने की चुनौती है। अपने इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आने वाले दिनों में वह देश में आर्मी विरोधी मोर्चे की अगुवाई करते हुए भी दिख सकते हैं।
सैन्य अधिकारियों के सामने यही सबसे बड़ा डर है। आज नवाज का पंजाबी होना ही उनकी सबसे बड़ी यूएसपी साबित हो सकता है। उन्हें जिया उल हक सत्ता में लाए थे। कट्टरवादी सोच वाले नेताओं के साथ भी उनके बेहतर संबंध हैं। सेना इस बात को जानती है। आज के राजनीतिक हालात में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी नेपथ्य में जा सकती है। सेना का झुकाव इमरान खान और देश की दूसरी छोटी-छोटी धार्मिक पार्टियों की तरफ है।
अगर किसी वजह से नवाज की पार्टी बहुमत नहीं ला पाई तो सेना के लिए खेल और भी आसान हो जाएगा। ऐसे में सेना अपनी मर्जी के राजनेता को प्रधानमंत्री बनवाकर उनकी डोर पिछले दरवाजे से अपने हाथ में रख सकती है। लेकिन यह सब इतना आसान भी नहीं है। यह सच है कि संयुक्त राष्ट्र और दुनिया के अन्य महत्वपूर्ण देश आज पाकिस्तान के लोकतांत्रिक हालात पर चुप्पी साधे बैठे हैं लेकिन यह स्थिति कब तक रहेगी इसे कोई नहीं बता सकता। पाकिस्तान के आर्थिक हालात जर्जर हैं। उसे भारी मात्रा में कर्ज की जरूरत है। ऐसे में चुनाव प्रक्रिया में सेना की स्पष्ट दखलंदाजी से हालात बिगड़ सकते हैं। चुनाव के दौरान यदि सिविल सोसाइटी ने सेना द्वारा भ्रष्टाचार के सेलेक्टिव मामले उठाए जाने को मुद्दा बनाया तो यह स्थिति भी नवाज शरीफ के पक्ष में जा सकती है क्योंकि कई सैन्य अधिकारियों और दूसरी पार्टियों के नेताओं के भ्रष्टाचार के किस्से भी कम चर्चित नहीं हैं।
आने वाले समय में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की बेरुखी पाकिस्तान को भारी भी पड़ सकती है। देश में लोकतंत्र के कमजोर होने या उसके हारने की कीमत वहां की स्थानीय जनता को ही चुकानी होगी। सेना और नवाज शरीफ का टकराव सिर्प पाकिस्तान ही नहीं, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया के लिए चिन्ता का सबब है। पाकिस्तान अब आगे किस दिशा में जाएगा इसका फैसला फिलहाल वहां के मतदाताओं के हाथ में है। लेकिन इसके लिए `फ्री एंड फेयर' इलेक्शन होना जरूरी है।
चुनाव के बाद यदि परिणाम नवाज शरीफ के पक्ष में गए तो पाकिस्तान में बेहतर बदलाव देखने को मिलेगा। लेकिन यदि यह परिणाम सैन्य अधिकारियों की मंशा के अनुरूप साबित हुए तो पाकिस्तान के लोकतांत्रिक भविष्य की कल्पना करना मुश्किल होगा।