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`पाक सेनाओं का आत्मसमर्पण 1971 के युद्ध का सर्वाधिक गौरवपूर्ण क्षण'

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:15 Dec 2018 4:08 PM GMT
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कर्नल (से.नि.) पीएन खेड़ा

भारत 16 दिसम्बर 2018 को विजय दिवस की 47वीं वर्षगांठ मना रहा है इस दिन पाकिस्तानी सेना के 93,000 अधिकारियों और सैनिकों ने जिनका नेतृत्व पूर्वी पाकिस्तान के जीओसी-इन-सी, लेफ्टिनेंट जनरल एए नियाजी कर रहे थे उन्होंने भारतीय सेना के पूर्वी कमान के जीओसी-इन-सी लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सम्मुख आत्मसमर्पण कर दिया था। विश्व के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब पाकिस्तान के सैनिकों ने अपने सुरक्षित क्षेत्र के अंदर रहते हुए और पर्याप्त मात्रा में हथियार होने के बावजूद भी आत्मसमर्पण कर दिया था।

नई दिल्ली-एशिया डिफेंस न्यूज इंटरनेशनल-भारत के लिए इस सहस्त्राब्दी का सबसे अधिक गौरवशाली क्षण 16 दिसम्बर 1971 को दोपहर 4 बजकर 51 मिनट का था, जब पूर्वी पाकिस्तान के जीओसी-इन-सी, लेफ्टिनेंट जनरल एएके नियाजी और 93,000 सैनिकों की उनकी सेना ने भारतीय सेना के जीओसी-इन-सी पूर्वी कमान के लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सम्मुख आत्मसमर्पण किया था। कृतज्ञ राष्ट्र, उस निर्णायक क्षण को 16 दिसम्बर को विजय दिवस के रूप में मनाता है।

लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा ने अपनी मृत्यु से पहले, पाकिस्तान पर शानदार विजय के गौरवशाली क्षणों को एक विशिष्ट साक्षात्कार में किया है। जनरल बताते हैं, `मुझे इस आपरेशन को (बंगलादेश की मुक्ति) अंतर्राष्ट्रीय हस्तक्षेप से पहले जल्दी से जल्दी पूरा करने को कहा गया था। क्षेत्र और दुश्मन के स्वभाव को ध्यान में रखते हुए हमने पूरी तरह से गैर-पारंपरिक रुख अपनाया। हमने दुश्मन के मजबूत ठिकानों से बचते हुए बड़ी तेजी से ढाका की ओर प्रस्थान किया।' वे बताते हैं, `हमारी रणनीति कामयाब रही। नदी तट की रक्षा कर रहे दुश्मन पर सामने से हमले की बजाय दुश्मन की गैर-मौजूदगी वाले इलाकों में नदी में ऊपर की तरफ या नीचे की ओर बढ़ते हुए हम दुश्मन के पीछे जा पहुंचे और उसे एकदम हैरान कर दिया।'

इस अभूतपूर्व विजय में योगदान करने वाले कारण गिनाते हुए जनरल ने अपनी सफलता के लिए श्रेष्ठ लड़ाकू क्षमता, पहल और समय को जिम्मेदार ठहराया और बताया, `योजना बनाने अपनी सेनाओं को तैनात करने के लिए हमारे पास काफी समय था। स्थानीय लोगों ने हमें सही और ताजा जानकारी दी और हमें अपने लक्ष्यों की ओर पहुंचने में मदद की। मुक्ति वाहिनी ने तो हमारी ताकत को दुगना कर दिया।' अच्छा सिपाही होने के कारण जनरल ने अपने दुश्मनों की भी तारीफ की और कहा, `उनकी तैयारी अच्छी थी। खासतौर से मुख्य बचाव व्यवस्था में उनके वैकल्पिक ठिकाने बहुत अच्छे थे। उनमें से कुछ को भेदना तो लोहे के चने चबाना साबित हुआ। उनको मात देते हुए हम संभवतम तेजी से ढाका की ओर बढ़ गए।' आपरेशन के संचालन से पूरी तरह से संतुष्ट, जनरल ने जोर देकर कहा, `हमारी सेना की बिजली की सी फुर्ती ने उन्हें चकित कर दिया। हमने लड़ाई, अपनी योजनानुसार ही लड़ी।'

अपने दुश्मन के बारे में बताते हुए जनरल ने बताया, `नियाजी ने तो ढाका को बचाने के बारे कभी सोचा तक नहीं था। इसकी तो उसने कल्पना भी नहीं की थी और वहीं वह मार खा गया।' पाक सेना की सबसे बड़ी कमी की ओर इशारा करते हुए जनरल अरोड़ा ने कहा, `उनकी सेना, आम आदमी से कट गई थी। पाकिस्तानी सेना की लूटपाट, बलात्कार और स्थानीय महिलाओं के साथ जबरन विवाह करने और उन्हें पाकिस्तान ले जाने की घटनाओं से लोग बुरी तरह आहत हुए थे। इसलिए वे अपने ही देश में असुरक्षित महसूस कर रहे थे। इन हालात मे कोई भी सेना नहीं लड़ सकती।' विजयी जनरल अपने जवानों और अफसरों की प्रशंसा करते नहीं थकते। वेगवती मेघना नदी के उस पार पहले जल-थल आपरेशन को शुरू करने में प्रदर्शित पहल और कौशल की उन्हेंने विशेष रूप से तारीफ की। जनरल बताते हैं, `पुल बनाने के लिए हमारे पास साधन न के बराबर थे और हेलीकॉप्टरों का भी मात्र एक स्क्वैड्रन था। फिर भी लड़कों ने कमाल कर दिखाया।'

जनरल अरोड़ा का जन्म 13 फरवरी 1916 को काला गुजरां, जिला झेलम (पंजाब) जोकि अब पाकिस्तान में है में हुआ था, जनरल अरोड़ा, अपनी युवावस्था के दिनों की याद में खो जाते हैं, जब पहली जनवरी, 1939 को उन्हें 2 पंजाब रेजीमेंट की 5 बटालियन में कमीशन मिला था और बाद में उन्होंने आईएमए मे 1 पैरा की कमान संभाली और क्वेटा के स्टाफ कॉलेज में पाकिस्तान के राष्ट्रपति, जनरल याहया खां उनके सहपाठी थे। वे जनरल याहया खां को `मौज-मस्ती पसंद सैनिक' बताते हुए कहते हैं कि `उन्होंने भारतपर हमला करने का मूर्खतापूर्ण निर्णय लिया'। युद्ध का सबसे गौरवशाली क्षण बताने के लिए जब उनसे आग्रह किया गया, तब विनीत परंतु गर्वोन्मत्त जनरल ने आत्मसमर्पण के फोटोग्राफ की ओर देखा, जिसमें नौजवान अरोड़ा, जनरल नियाजी को आत्मसमर्पण के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करते देख रहे हैं। एक विजयी सैनिक की सी विनम्रता से उन्होंने कहा, `निस्संदेह, यही सर्वाधिक गौरवशाली क्षण था, लेकिन हमें इसे बढ़ा-चढ़ाकर नहीं देखना चाहिए, था तो वह पाकिस्तान का एक हिस्सा मात्र और वह भी व्यावहारिक अंग नहीं था।'

भारतीय सेना के युद्धोत्तर व्यवहार की प्रशंसा करते हुए जनरल ने कहा, `इतिहास में कहीं भी कोई भी सेना प्रवेश करने के बाद बिना कोई फायदा उठाए बाहर नहीं निकली है। इसके विपरीत हमने तो सड़कें और पुल बनाने में उनकी मदद की।' जब जनरल अरोड़ा का देहांत हुआ तो वे 89 वर्ष के थे। वे एक शांतिपूर्ण और संतुष्ट जीवन व्यतीत कर रहे थे। विश्व के इस हिस्से में हालात का विश्लेषण करते हुए उन्होंने जोर देकर कहा, `इस उपमहाद्वीप की राजनीति को अगर छोड़ दें, तो बंगलादेश के लोग अपने मुक्ति संग्राम में भारतीय सेना की भूमिका और योगदान के लिए सदैव ही आभारी हैं।' जब वे एक बार फिर से ढाका गए, तो उन्हें वहां के लोगों की गर्मजोशी की एक बार फिर अनुभूति हुई। उनका गर्मजोशी से स्वागत किया गया।

यह साक्षात्कार 10 दिसम्बर 2004 को विजय दिवस की 33वीं वर्षगांठ के अवसर पर अडनी के संपादक को उन्होंने अपने निवास स्थान न्यू फ्रैंड्स कॉलोनी, नई दिल्ली में दिया था। जनरल अरोड़ा का देहांत 3 मई 2005 को हुआ। लेफ्टिनेंट जनरल अरोड़ा अब हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन विजय दिवस पर उनकी स्मृति सदैव हमारे साथ रहेगी।

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