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किसानों की कर्जमाफी के खिलाफ रिजर्व बैंक

👤 admin5 | Updated on:15 Jun 2017 3:53 PM GMT
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राजनाथ सिंह `सूर्य'

रिजर्व बैंक ने किसानों के 36000 करोड़ रुपए के कर्ज को माफ करने के उत्तर पदेश सरकार के निर्णय की दोबारा आलोचना किया है। विधानसभा चुनाव के समय भारतीय जनता पार्टी ने इस कर्जमाफी का वादा किया था। इस वायदे पर अमल की घोषणा निर्वाचित सरकार मंत्रिमंडल की पहली बै"क में करने का वादा पूरा करने के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने शपथ ग्रहण के बाद मंत्रिमंडल की औपचारिक बै"क बुलाने में भी विलंब कर दिया। छत्तीस हजार करोड़ रुपए की राज्य की आमदनी से घटा देने के बाद उसकी आपूर्ति के लिए कदम उठाए जाने के ऊहापोह से निकलने के लिए योगी मंत्रिमंडल को नाको चने चबाने पड़ रहे हैं। इधर महाराष्ट्र सरकार ने भी तीस हजार करोड़ रुपए के कर्जमाफी का एलान कर दिया है।

जिस पकार किसान आंदोलन महाराष्ट्र से मध्यपदेश तक पैर पसार रहा है, वह अन्य राज्यों में इस पकार के आंदोलन को आगाज दे रहा है। चुनाव के समय वोट बैंक का महात्व समझकर अनेक ऐसी घोषणाएं की जाती हैं जिसका बोझ उ"ाने में सरकार समर्थ नहीं होती। घोटे के बजट का बढ़ता चलन और योजनाओं के लिए स्वीकृत धनराशि को जुटा पाने में असमर्थता का निवारण करने के लिए ससे सरल उपाय के रूप में कर्ज लेना हो गया है।

जिसे अनुदान या सहयोगी संज्ञा पदान किया गया है। देश में बैंक, जीवन बीमा निगम से कर्ज लेकर और विदेशों से `सहायता' पाप्त कर याजनाओं को पूरा करने के पयास में कोढ़ में खाज का काम कर रहा है `कमीशन' इसलिए या तो योजनाएं पूरी होने में लागत में इजाफा दस से सौ पतिशत तक हो जाता है या बहुत-सी योजनाएं निरुपयोगी घोषित होकर बंद हो जाती है। विदेशों से मिली `सहायता' का भुगतान तो हम कर नहीं पाते उसका ब्याज चुकाने के लिए और कर्ज लेते जाते है। चाहे केंद्र की सरकार हो या राज्यों की, सभी कर्ज और सहायता का सदैव मोहताज रहती हैं। तो राज्यों में विदेशी निवेश के लिए राज्य सरकार बिना भारत सरकार की मध्यस्थता के सीधे सम्पर्प में जुट गई है। भारत सरकार भी पीपीपी (पीपुल्स पाइवेट पार्टनरशिप) के जरिए निजी क्षेत्रों से निवेश बढ़ाने तथा मेक इन इंडिया को विश्व के निवेशकों के लिए आकर्षण बनाते जाने का उपक्रम करते जा रहा है। दो दशक पहले एक अर्थशास्त्राr ने कहा था कि भारत के पैदा होने वाला बच्चा सत्तर हजार से सवा लाख तक के कर्ज का बोझ लेकर संसार में आता है। आज इस बोझ की क्या स्थिति होगी? इसका खुलासा संभवतः किसी अर्थाशास्त्राr ने नहीं किया है। लेकिन जिस पकार सामान्य कर्ज का बोझ अदा करने पर बढ़ती ही जाती है, उसी पकार देश पर भी वह बढ़ ही रहा होगा।

हमने शासन व्यवस्था के लिए संसदीय लोकतंत्र की पणाली को अंगीकार किया है जो लोक कल्याण की मूलभूत अवधारणा पर आधारित है। लोक कल्याण को वोट बैंक के पभाव में हम निरंतर मुफ्त बनाते गए। नतीजा कई पकार से घातक हो रहा है। `मुफ्त' के रूप में बिजली पानी की सुविधा, नगरी के अलावा लैपटॉप, टीवी सेट आदि का वितरण छात्रवृत्ति के नाम पर धन उगाहने के लिए फर्जी शिक्षा संस्थाओं और छात्रों की संख्या में इजाफा, सेवा के नाम पर बने स्वयंसेवी संग"नों (एनजीओज) की कुकुरमुत्ता के समान पगटीकरण, बजट को चूसने के लिए मैदान में आते ही जा रहे हैं।

साथ ही बेरोजगारी के लिए भत्ता देकर रोजगार का तात्पर्य केवल नौकरी मान लेने के कारण स्वरोजगार का क्षेत्र सूखता जा रहा है। सरकारी नौकरी के बाद जो कुशल कारीगर या शिल्पकार हैं वे बड़े उद्योग घरानों के नौकर हो गए हैं। फलतः भारत में उद्यमी घरानों की आमदनी में इजाफा होता जा रहा है और गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या कम नहीं हो रही है। संसार के सौ धन घरानों में भारत की पै" बहुत पभावशाली हो गई है।

साथ ही कर्ज के बोझ से दबकर हताश होकर आत्म हत्या करने वालों में देश विश्व में पथम स्थान पर पहुंच गया है। सरकार की मुफ्त और माफी नीति के कारण सरकारी या सहकारी संस्थाओं से कर्ज लेने वाले उसकी माफी की संभावनाओं को ध्यान में रखकर भुगतान नहीं करते और जब वह असहज हो जाता है तो आत्महत्या कर लेते हैं। क्या कभी हमारे राजनेताओं, आर्थिक चिंतकों सामाजिक संग"नों ने इस बात पर विचार किया है कि अर्थ व्यवस्था में बढ़ती `मुफ्ती' और कर्ज तथा `सहायता' का क्या पभाव पड़ रहा है। लोगों में भौतिक भूख बढ़ती जा रही है। इस भूख नियम कानून, शासन या अनुशासन अथवा सामाजिक सद्भावना को जो हमारी वैशिष्ट रहा है, के स्थान पर नोच खसोट की निवृष्ट पवृत्ति की ओर ले जा रहा है।

इसका सबसे विकृत उदाहरण है आंदोलनों के समय निजी और सरकारी सम्पत्तियों, वाहनों आदि का नष्ट किया जाना। जब हम किसी बस में आग लगाते हैं, भवन को ध्वस्त करते हैं, रेलगाड़ियों तथा अन्य वाहनों का आवागमन रोकते हैं तो आम तौर पथम माध्यम उससे होने वाली हानियों का भी अनुमान पेश करते हैं, जो करोड़ों से कम नहीं होती कुछ मामलों में तो वह अरबों-खरबों तक का अनुमान लगाती है। `सरकारी सम्पत्ति' अर्थात किसकी सम्पत्ति। क्या पधानमंत्री, मुख्यमंत्री, नौकरशाहों या व्यवस्था से जुड़े अन्य लोगों की? यह सम्पत्ति किसके द्वारा किसके साधनों से किसके लिए खड़ी की जाती है। जनता अर्थात पत्येक नागरिक इस सम्पत्ति को जुटाने में संरक्षित रखने और उसके उपयोग का भागीदारी होता है। यह "rक है कि उपयोग में कुछ विशिष्ट पकार के बढ़ते पभाव से आम आदमी वंचित रह जाता है। लेकिन फिर भी यह सम्पत्ति उसी के साधन से उसी की सुविधा के लिए होती है। तो क्या कभी हमने विचार किया है कि जिस सम्पत्ति को हम सरकारी कहकर उत्तेजनाओं से वशीभूत होकर नष्ट करते हैं वह किसकी है और नष्ट सम्पत्ति-बस-रेलगाड़ी आदि को फिर से बनाने के लिए किससे धन लिया जाता है? इसी पकार मुफ्त बांटने का माफी से लाभ पहुंचाने में जो धन व्यय होता है या राजकीय कोष को खाली करता जाता है, उसका बोझ किसे उ"ाना पड़ता है। मुफ्त या माफी के लिए रकम राजकोष से ही आती है। इसकी पूर्ति के लिए सड़क, सिंचाई, पढ़ाई या अन्य इस पकार की योजनाओं में या तो कटौती करनी पड़ती है या फिर उसके लिए कर्जदार होकर भावी पीढ़ी पर हम बोझ डालते जाते हैं। रिजर्व बैंक ने पहली बार इस पकार की माफी योजनाओं को अनुचित बताने का साहस किया है। क्या ऐसा साहस हमारे जनपतिनिधि कहे जाने वाले लोग भी कर सकते हैं।

जो यह कहते हैं कि इसने चुनाव में वादा किया था, उसे पूरा कर रहे हैं, उनके लिए जिस महापुरुष की हम जन्म शताब्दी मना रहे हैं, अर्थात दीनदयाल उपाध्याय का 1967 में जब चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में पायः सभा दलों की गैर कांग्रेसी सरकार उत्तर पदेश में थी, में सवा तीन एकड़ भूमि की लगान माफी और किसानों से लेवी न लेने का मसौदा पत्र पर हस्ताक्षर कर सभी दल वचनबद्ध थे, विवाद चल रहा था।

सरकार बनाने में जिस जनसंघ की सबसे ज्यादा भागीदारी थी, वह भी अपने घोषणा पत्र में ऐसा ही वादा कर चुकी थी। दीनदयाल जी ने नानाजी देशमुख के साथ ग्रामीण अंचलों को भ्रमण करने जिसमें मैं भी उनके साथ था, के बाद लखनऊ में आयोजित एक पेस वार्ता में किसानों पर लेबी और लगान न माफी का जब समर्थन किया तो उनसे पूछा गया, जनसंघ के घोषणापत्र में तो इसका वादा किया गया था। दीनदयाल जी का उत्तर था।

घोषणा पत्र हमारी आकांक्षाओं का पतीक है जब हम सरकार में आते हैं तो उस आकांक्षा की धरातलीय तथ्य के आधार पर समीक्षा करते हैं, उनमें जो अव्यवहारिक है, उन्हें छोड़ देना चाहिए तथा अन्य आकांक्षाओं की पाथमिकता संसाधनों के आधार पर निर्धारित करनी चाहिए। घोषणा पत्र आकांक्षाओं का पतीक है, लेकिन अव्यवहारिक होकर उसे लागू करना अराजकता को जन्म देता है। वोट बैंक की राजनीति ने `मुफ्त और माफी' को मुख्य चुनावी मुद्दा बना दिया है। इसमें जो होड़ चल रही है, यह मर्यादा को तार-तार तो कर ही रहा है बिना परिश्रम के अधिक से अधिक सम्पन्न होने का लोभ भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहा है और समाज अराजकता की ओर बढ़ता जा रहा है।

समय रहते इस मुफ्त और माफी का पभाव सबसे ज्यादा जिस आम आदमी पर पड़ता है, भरपाई करनी पड़ती है। उसे समझ में आए इसके लिए नेतृत्व पदान करने का दावा करने वाले व्यक्तियों और संग"नों को भी तात्कालिकता के बजाय दूरगामी परिणामों का आंकलन करना चाहिए। भारत `मुफ्त और माफी' से मुफ्त होना चाहिए। पौरुषयुक्त भारत तभी बन सकेगा जब वह इस महामारी से मुक्त होगा।

(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं।)

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