जम्मू-कश्मीर में शांति बनाए रखने के लिए लगा पीएसए
- आदित्य नरेन्द्र
किसी भी लोकतांत्रिक देश में वरिष्ठ राजनेताओं पर पीएसए लगाना कोईं अच्छा विकल्प नहीं है फिर भी जम्मू-कश्मीर की स्थिति को देखते हुए इससे वहां शांति स्थापित करने में मदद मिले तो यह विकल्प बुरा भी नहीं है।जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला द्वारा 1970 के दशक में बनाया गया चर्चित कानून एक बार फिर चर्चा में है। पब्लिक सेफ्टी एक्ट (पीएसए) नाम का यह कानून किसी जमाने में लकड़ी की तस्करी रोकने के लिए बनाया गया था। इस कानून के तहत सरकार को 16 साल से ऊपर के किसी भी व्यक्ति को बिना मुकदमा चलाए दो साल तक हिरासत या नजरबंदी में रखने की अनुमति मिल जाती है। 2011 में इसमें वुछ सुधार करते हुए न्यूनतम आयु को 16 से बढ़ाकर 18 वर्ष कर दिया गया था। पिछले दशकों में इसका इस्तेमाल आतंकियों, अलगाववादियों और पत्थरबाजों के खिलाफ जमकर किया गया। हिजबुल के आतंकी वुरहान वानी को 2016 में एक मुठभेड़ के दौरान मार गिराए जाने के बाद कश्मीर घाटी में उग्रा प्रादर्शनों का एक बड़ा दौर शुरू हो गया था। इस दौरान इस कानून का जमकर इस्तेमाल किया गया और 550 से भी ज्यादा लोगों पर पीएसए लगाया गया। लेकिन इस समय यह कानून इसलिए चर्चा में है कि संसद द्वारा अनुच्छेद 370 और 35ए हटाए जाने के बाद इसके तहत तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री रहे फारुक अब्दुल्ला को नजरबंद किया गया है। जम्मू-कश्मीर प्राशासन ने राज्य के दो और पूर्व मुख्यमंत्रियों उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती पर भी इसी एक्ट के तहत कार्रवाईं की है।
इस कानून के तहत किसी भी व्यक्ति को हिरासत में लेने का आदेश जिला मजिस्ट्रेट या संभागीय आयुक्त द्वारा जारी किया जाता है। राज्य प्राशासन एक ओर जहां इस कार्रवाईं को जम्मू-कश्मीर में शांति बनाए रखने के लिए आवश्यक मान रहा है वहीं दूसरी ओर विपक्षी नेता राज्य सरकार के इस कदम के खिलाफ खुलकर सामने आ गए हैं और इसे सरकार का गलत कदम करार दे रहे हैं। वरिष्ठ कांग्रोस नेता पी. चिदम्बरम ने सरकार के इस पैसले की आलोचना करते हुए कहा है कि बिना किसी आरोप के कार्रवाईं करना लोकतंत्र में एक घटिया कदम है। उन्होंने सवाल उठाया कि जब अन्यायपूर्ण कानून पास किए जाते हैं या लागू किए जाते हैं तो लोगों के पास शांतिपूर्ण विरोध करने के अलावा क्या विकल्प होता है। इस मसले पर प््िरायंका गांधी वाड्रा भी मैदान में आईं और उन्होंने पूछा कि किस आधार पर इन नेताओं के खिलाफ कार्रवाईं की गईं है। उन्होंने कहा कि उमर और महबूबा ने संविधान को कायम रखा, लोकतांत्रिक प्राव््िरायाओं का अनुपालन किया और कभी भी हिसा एवं विभाजन से संबंध नहीं रखा इसलिए यह नेता वैद के नहीं बल्कि रिहा किए जाने के हकदार हैं।
माकपा ने भी इस पैसले की आलोचना करते हुए कहा कि इस कदम से साफ है कि जम्मू-कश्मीर में हालात सामान्य होने का सरकार का दावा गलत है। उधर सरकार ने इन नेताओं पर पीएसए लगाने के कदम का समर्थन करते हुए कहा है कि इन नेताओं ने जम्मू-कश्मीर में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए उनके नियमों और शर्तो को मानने से इंकार कर दिया था इसलिए उन पर पीएसए लगाया गया है। जिन नेताओं ने एक बांड पर हस्ताक्षर पर अनुच्छेद 370 के खिलाफ प्रादर्शन न करने की गारंटी दी थी उन्हें रिहा कर दिया गया है।
दरअसल जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाए हुए छह महीने से भी ज्यादा का समय हो चुका है और वहां स्थिति काफी हद तक सामान्य होने के बावजूद भी जिन्दगी दोबारा अभी तक पटरी पर नहीं लौटी है। ऐसे में सरकार की सोच है कि यदि फारुक और उमर अब्दुल्ला व महबूबा मुफ्ती अनुच्छेद 370 को लेकर अपने पुराने रुख पर कायम रहते हुए घाटी में लोगों के बीच जाएंगे तो घाटी में स्थिति फिर बिगड़ने की आशंका हो सकती है। ऐसे में जब तक घाटी में शांति व्यवस्था पूरी तरह कायम न हो जाए और हालात सामान्य न हो जाएं तब तक इन नेताओं की रिहाईं को टाल दिया जाना चाहिए। इससे सीमापार पाकिस्तान में बैठे आतंकियों के आकाओं को भी आग में घी डालने का मौका नहीं मिलेगा।
हालांकि किसी भी लोकतांत्रिक देश में वरिष्ठ राजनेताओं पर पीएसए लगाना कोईं अच्छा विकल्प नहीं है फिर भी जम्मूकश्मीर की स्थिति को देखते हुए इससे वहां शांति स्थापित करने में मदद मिले तो यह विकल्प बुरा भी नहीं है।