सक्षम 'न्यू इंडिया' बढ़ाएगा भविष्य में चीन की मुश्किलें
-आदित्य नरेन्द्र
कोरोना वायरस ने न केवल दुनिया के हालात अपितु उसकी सोच को भी बदल कर रख दिया है। अभी तो सभी देश इस बीमारी के साथ जंग लड़ रहे हैं लेकिन बीच-बीच में कईं बड़े और महत्वपूर्ण देशों से जो बयान आ रहे हैं उससे स्पष्ट है कि वह देश कहीं न कहीं इस स्थिति के लिए चीन को जिम्मेदार मान रहे हैं। इसका अर्थ है कि भविष्य में चीन के लिए हालात उतने आसान नहीं होंगे जितने पिछले चार दशकों से रहे हैं। अमेरिका, जापान, ईंयू, दक्षिण कोरिया और आस्ट्रेलिया जैसे देश अपने सभी अंडे एक ही टोकरी में रखने की नीति का दुष्परिणाम भुगत रहे हैं और अब कोविड-19 मामले में चीन की भूमिका देख उनकी कोशिश है कि दूसरे देशों पर दांव लगाकर चीन को आर्थिक व राजनीतिक रूप से कमजोर किया जाए। इसके लिए उनकी सबसे पहली कोशिश यह है कि उनके देशों की वंपनियां चीन से बाहर निकलें। लेकिन इसी के साथ जुड़ा हुआ एक और महत्वपूर्ण सवाल यह है कि यह वंपनियां चीन से निकल कर कहां जाएं। इसके लिए उनकी निगाह इंडोनेशिया, थाइलैंड, मलेशिया, वियतनाम, फिलीपींस और भारत जैसे देशों पर है। इन सभी देशों में चीन की तरह ही सस्ता श्रम और वुशल कमा उपलब्ध हैं।
हालांकि एक अनुमान है कि इन दक्षिण पूवा एशियाईं देशों में भारत के मुकाबले लागत लगभग 10 प्रातिशत तक कम रहती है। इसके बावजूद भी भारत अपने विशाल आकार और मध्यम वर्ग की बड़ी जनसंख्या के चलते इन सभी देशों पर भारी है। यदि चीन से बाहर निकलने वाली वंपनियां भारत में प्लांट लगाती हैं तो उनके प्रॉडक्शन का एक बड़ा हिस्सा भारत में ही खप जाएगा। इससे उन पर निर्यांत करने का दबाव कम होगा।
पिछले दिनों भारत ने आरईंसीपी समझौते पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया और वार्ता से बाहर निकल आया था। इसका भी फायदा भारत को मिलेगा क्योंकि यदि भारत इस संधि को मान लेता तो दक्षिण- पूवा देशों के लिए भारत में आसान निर्यांत का रास्ता खुल जाता। यदि ऐसा हो जाता तो विदेशी वंपनियां सीधे दक्षिण पूवा एशियाईं देशों में चली जाती और संधि का फायदा उठाते हुए वहां से भारत को निर्यांत कर लाभ कमाती। प्राधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार विदेशी निवेश को आकर्षित करने का भरपूर प्रायास कर रही है। पिछले साल सितम्बर में कारपोरेट कर को घटा दिया गया था। विदेशी वंपनियां चाहती हैं कि भूमि अधिग्राहण और मजदूर संबंधी कानूनों को और तर्वसंगत बनाया जाए। सरकार इस पर लगातार काम कर रही है। कोरोना से पैले संकट ने इसे और तेज कर दिया है। मोदी सरकार समझ रही है कि उसके सामने चीन की जगह लेने का एक बेहतरीन मौका है। भारतीय नेतृत्व और प्राशासन लगातार अमेरिकी नेतृत्व और प्राशासन के संपर्व में है। उधर जापान ने अपनी वंपनियों को चीन से उत्पादन ईंकाईं स्थानांतरित करने के लिए दो बिलियन अमेरिकी डॉलर की वित्तीय सहायता की घोषणा की है।
इसका फायदा उठाते हुए कईं जापानी कंपनियां भारत में आ सकती हैं। लेकिन यह सब इतना आसान भी नहीं है क्योंकि भारत उन वंपनियों के सामने एकमात्र विकल्प नहीं है। हमें खुद को एकमात्र विकल्प बनाने के लिए युद्ध स्तर पर व्यापार अनुवूल पैसले लेकर उन्हें लागू करना होगा। यदि भारत इस अवसर का लाभ उठाते हुए खुद को चीन के विकल्प के रूप में स्थापित करने में कामयाब रहा तो चीन के लिए न केवल आर्थिक बल्कि राजनीतिक एवं सैन्य मोच्रे पर भी मुश्किलों का बढ़ना तय है। भारत को जब-तब आंख दिखाने वाला चीन का सरकारी अखबार ग्लोबल टाइम्स यदि भारत की प्राशंसा करे तो समझ जाना चाहिए कि अंदर से चीन का आत्मविश्वास कितना हिला हुआ है। भारत के आर्थिक रूप से ताकतवर होने का मतलब चीन बेहतर समझता है। वह जानता है कि आर्थिक रूप से सम्पन्न एवं सक्षम न्यू इंडिया भविष्य में कभी भी उसके लिए चुनौती साबित हो सकता है। आजादी के बाद विश्व रंगमंच पर छा जाने का हमें यह पहला बड़ा अवसर मिला है। यदि हमने इस अवसर का समय रहते इस्तेमाल किया तो निश्चित रूप से 21वीं सदी भारत की होगी।