टीवी डिबेट का गिरता स्तर
-आदित्य नरेन्द्र
टेलीविजन अर्थात टीवी आज हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है। मनोरंजन या देश-दुनिया की जानकारी हासिल करने के लिए हम अपनी रोजमर्रा की जिदगी का वुछ न वुछ हिस्सा टीवी के आगे बैठकर जरूर बिताते हैं। इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज हमारे जीवन में टीवी की क्या जगह है।
सच्चाईं यह है कि हम टीवी के आगे काफी समय बिताते हैं। बात करें न्यूज चैनलों की तो कईं लोगों का आरोप है कि कईं एंकर और न्यूज चैनल अपनी विचारधारा और पक्षपात को लोगों पर थोपने का काम कर रहे हैं। कईं चैनल टीवी बहस के दौरान उनकी पसंद की विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए अपनी पसंद के पैनेलिस्ट ज्यादा रखते हैं और विरोधी पक्ष को जवाब देने के लिए या तो उचित समय नहीं देते और अगर देते भी हैं तो टोकाटाकी करके उनका समय नष्ट कर देते हैं। इस दौरान इतना शोर होता है कि दर्शकों के वुछ भी पल्ले नहीं पड़ता। बहस के दौरान भाषा की मर्यांदाएं टूटती जा रही हैं और मीडिया ट्रायल के जरिये तुरन्त पैसला करने की प्रावृत्ति बढ़ती जा रही है। यह स्थिति चिन्ता का विषय है। हालात तब और भी गंभीर दिखाईं देते हैं जब टीवी पर बहस के दौरान एंकर ही गोदी मीडिया और राष्ट्रद्रोही व देशद्रोही जैसे शब्दों का इस्तेमाल अपने तर्व को वजन देने के लिए करते हैं।
जबकि किसी भी एंकर के लिए पक्षपात किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। कईं बार ऐसा लगता है कि बहस में शामिल लोगों को किसी भी संस्था पर विश्वास नहीं है। टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में जहरीली सोच रखने वाले ऐसे छोटे-मोटे नेताओं को टीवी स्व््रीन पर अच्छी- खासी जगह दे दी जाती है जो गैर-जरूरी होती है और लोकतंत्र का नुकसान करती है। अकसर टीवी डिबेट में दिए जाने वाले बयानों का असर सोशल मीडिया पर बाखूबी दिखाईं देता है। जहां कोईं लक्ष्मण रेखा नहीं होती। इससे समाज को कितना नुकसान हो सकता है इसका अंदाजा लगाने के लिए किसी तरह की रॉकेट साइंस में पारंगत होना जरूरी नहीं है। ऐसा नहीं है कि टीवी डिबेट के स्तर में अचानक गिरावट आईं है। पिछले ढाईं दशक में जैसे-जैसे टीवी चैनलों की संख्या बढ़ी है वैसे-वैसे उनमें गलाकाट प्रातियोगिता शुरू हो गईं है। पिछले पांच-सात साल में हमने टीवी डिबेटों को इतना उग्रा होते हुए देखा है कि कईं बार लगता है कहीं हमारा समाज विभाजन की ओर तो नहीं जा रहा है। कईं एंकर हाथ उठाकर या पटक-पटक कर इस अंदाज में डिबेट कराते हैं जैसे वहां कोईं बहुत बड़ी मुसीबत आने वाली हो।
ऐसी डिबेटों से दर्शक थोड़ी देर के लिए तो उत्तेजित हो जाएगा लेकिन अंत में उसके हाथ क्या आएगा। ऐसी डिबेट को दर्शकों के समय और पैसे की बर्बादी क्यों नहीं कहा जाना चाहिए। इसमें कोईं शक नहीं कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है। इसके ऊपर निष्पक्ष रहकर लोकतंत्र को मजबूत करने की जिम्मेदारी है। राजनीतिक दलों के प्रातिनिधियों का एक-दूसरे पर आरोपप्रात् यारोप लगाना उनकी पॉलिटिकल स्कोरिंग के लिए जरूरी हो सकता है लेकिन इससे एंकर को कोईं फर्व नहीं पड़ना चाहिए। क्योंकि यदि मीडिया की निष्पक्षता ही सवालों के घेरे में आ जाएगी तो लोकतंत्र को कमजोर होते देर नहीं लगेगी। मीडिया के लिए जरूरी है कि वह न केवल निष्पक्ष रहे बल्कि निष्पक्ष दिखाईं भी दे। इसके लिए मीडिया को खुद आगे आना होगा। टीवी डिबेटों को निष्पक्ष बनाकर और इसका स्तर ऊपर उठाने का प्रायास कर इसकी पहल की जा सकती है।