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घटते जा रहे रोजगार से चिंतित है श्रमिक वर्ग

👤 Veer Arjun Desk 4 | Updated on:30 April 2019 11:06 PM IST
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देश में 17वीं लोकसभा हेतु वर्ष 2019 का चुनाव मई दिवस के बीच से गुजरते हुए सम्पन्न होने जा रहा है जहां की अधिकांश आबादी श्रम पर आधारित है। जहां का अधिकांश जन जीवन दैनिक मजदूरी पर आज भी टिका हुआ है। जहां के अधिकांश घरों के चूल्हें श्रम से मिले वेतन पर आधारित है। देश की युवा पीढ़ी रोजगार के लिए भटक रही है। भूमंडलीयकरण, खुले बाजार नीति एवं उदारीकरण से उपजे सरकार की नई आर्थिक नीतियों के चलते यहां देश में रोजगार देने वाले खड़े उद्योग धीरे-धीरे बंद होते जा रहे है। नए उद्योग आ नहीं रहे है। जिसका पतिकूल पभाव यहां के श्रमिक वर्ग एवं बेरोजगार युवा पीढ़ी पर सर्वाधिक पड़ा है। देश में अचानक लागू नोटबंदी से कई दैनिक श्रम से जुड़े श्रमिकों के हाथ से रोजगार छीन गया। जीएसटी से बाजार भाव अनियंत्रित हो गया। इस तरह के परिवेश का यहां के श्रमिकों के जनजीवन पर पतिकूल पभाव पड़ा। इस बात को पायः सभी जानते है फिर भी इस दिशा में कोई उचित कदम उ"ाने को आज कोई तैयार दिखाई नहीं दे रहा है। इस दिशा में सभी तुष्टिकरण की नीति अपनाते नजर आ रहे हैं। किसी भी राजनीतिक दल के घोषणा पत्र में रोजगार देने वाले उद्योग लाने एवं चल रहे उद्योगों को बचाने की बातें कहे नजर नहीं आती। देश के सभी राजनीतिक दल रोजगार देने की बातें तो कर रहे रहे है पर सही रोजगार कैसे दिया जा सकेगा, इस मुद्दे पर सभी खोखले नजर आ रहे हैं। वोटों के लिए रेवरियां बाटी जा रही है पर देश की बेरोजगार युवा पीढ़ी को कैसे रोजगार दिया जा सकेगा, कर्ज से डुबे किसानों को कैसे बाहर किया जा सकेगा, शोषण के बीच दबते जा रहे श्रमिकों को कैसे बाहर निकाला जा सकेगा, असमय श्रम से मुक्त किए जा रहे श्रमिकों की समाजिक सुरक्षा किस पकार की जा सकेगी आदि। इस तरह के अनेक गंभीर मुद्दे है जो दिन पर दिन नई आर्थिक नीतियों के बीच उलझ कर जटिल होते जा रहे है। इस दिशा में न तो सरकार कोई सही समाधान निकाल पा रही है न श्रमिकों के हित के लिए बने अलग अलग खेमें में बंटे श्रमिक संग"न। नई आर्थिक नीतियों के तहत उपजी विनिवेश पक्रिया में पनपे निजीकरण के दौर ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के नाम देश के लाखों लोगों को बेरोजगार बना दिया। इस पक्रिया के तहत उद्योगों में रिक्त स्थानों की पूर्ति नई भर्ती के द्वारा न करके "sकेदारों के माध्यम से की जाने लगी, जहां निजीकरण का एक नया अव्यवस्थित स्वरूप सामने उभरता साफ-साफ दिखाई देने लगा। जहां बार-बार विनिवेश एवं निजीकरण के उभरे विरोधी स्वर भी स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति पर लगाम नहीं लगा पाए। जिसके कारण निजीकरण के बढ़ते चरण को रोक पाना मुश्किल हो गया। निजीकरण व विनिवेश के विरोधी स्वर के चलते पूंजीपति समर्थक नई आर्थिक नीतियों की पक्षधर सरकार ने "sकादारी पद्धति के माध्यम से निजीकरण व विनिवेश के पग पसारने का एक नया मार्ग ढूंढ लिया है। जिसके विकराल स्वरूप को वर्तमान में सार्वजनिक क्षेत्रों के उद्योगें में साफ-साफ देखा जा सकता है। इस तरह के बदले स्वरूप में निजीकरण का लक्ष्य भी पूरा होता दिखाई दे रहा है तथा लूट का बाजार भी चालू है जहां दोहरे लाभ की तस्वीर साफ-साफ उभरती नजर आ रही है। "sकेदारी पथा के चंगुल में पनपता निजीकरण का यह छद्म स्वरूप निजीकरण से भी ज्यादा खतरनाक साबित हो सकता है। जहां अस्थिरता एवं असंतोष से भरा भविष्य पहले से ही परिलक्षित हो रहा है। ऐसे माहैल में न तो श्रम का कोई मूल्यांकन है, न श्रम से जुड़े लोगों की कोई सुरक्षा। इस तरह के पसंगों का कोई कहीं स्थान नहीं। सब कुछ "sकेदार के हाथ होता है। शोषणीय परिवेश में खाना और खिलाना जहां खुलकर भ्रष्टाचार एवं शोषण का नंगा नाच ही केवल संभव है। इस तरह के परिवेश का इतिहास गवाह है फिर भी निजीकरण के बदले स्वरूप को रोके जाने का यहां कोई विरोध नहीं दिखाई देता। इस पर मंथन करने की आवश्यकता है।

-डॉ. भरत मिश्र प्राची,

झोटवाड़ा, जयपुर (राज.)।

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