Home » आपके पत्र » जनता से भी पूछिए, एक देश एक चुनाव का सवाल

जनता से भी पूछिए, एक देश एक चुनाव का सवाल

👤 Veer Arjun Desk 4 | Updated on:1 May 2019 11:29 PM IST
Share Post

विधि आयोग द्वारा बीती जुलाई को पूरे देश में एक साथ चुनाव करवाने हेतु जो सर्वदलीय बै"क बुलाई थी उसका कोई नतीजा नहीं निकल सका। लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के मुद्दे पर सियासी दल आपस में बंटे हुए हैं। विधि आयोग के इस फ्रस्ताव पर छह दल खुलकर इसके पक्ष में आए, वहीं नौ दलों ने इसका विरोध किया है। दिलचस्प बात यह है कि भाजपा और मुख्य विपक्षी कांग्रेस ने इस पर अभी चुप्पी बना रखी है। देश में एक साथ चुनाव कराने के विषय में दो दिवसीय परामर्श कार्यक्रम के समापन पर राजग के घटक दल शिरोमणि अकाली दल के अलावा अन्नाद्रमुक, समाजवादी पार्टी, जदयू, टीआरएस और नवीन पटनायक के बीजू जनता दल ने इस विचार का समर्थन किया है। उधर भाजपा के सहयोगी दल गोवा फॉरवर्ड पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, डीएमके, तेलगु देशम पार्टी, भाकपा, माकपा, फॉरवर्ड ब्लॉक और जनता दल (एस) ने इसका विरोध किया है। सपा ने इस विचार का समर्थन किया, हालांकि उसका कहना है कि पहला एक साथ चुनाव 2019 में ही लोकसभा के साथ ही होना चाहिए। लेकिन इन सबके बीच लोकतंत्र का राजा कहे जाने वाली पजा की राय जानने की जरूरत किसी ने महसूस नहीं की है। न विधि आयोग ने और न ही राजनीतिक दलों ने। लोकतंत्र की महत्वपूर्ण इकाई लोक को इस तरह नजरंदाज करना तर्पसंगत पतीत नहीं होता है। इस देश व लोक महत्व के विषय में जनता की राय जानना अति आवश्यक है। विधि आयोग की कसरतों व सरकार की कोशिशों के इतर कांग्रेस ने अभी से ये कहना शुरू कर दिया है कि इसी वर्ष होने वाले मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनावों में भाजपा की खस्ता हालत के कारण केंद्र सरकार ये दांव खेलना चाह रही है। वैसे चुनाव आयोग भी समय-समय पर इसकी पहल कर चुका है किन्तु देश का राजनीतिक माहौल इतना बिगड़ चुका है कि अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए राजनेता और उनकी पार्टियां राष्ट्रीय हित को दरकिनार करने में जरा भी नहीं हिचकतीं। 1967 तक देश में सभी विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा के साथ ही हो जाया करते थे। लेकिन फिर संविद सरकारों के उदय से उत्पन्न राजनीतिक अस्थिरता ने एक देश-एक चुनाव की व्यवस्था को संकट में डालना शुरू किया।

-मुकेश अग्रवाल,

कंझावला, दिल्ली।

विश्वविद्यालयों की गरिमा की

दिशा में महामहिम की पहल

राजनीति के अखाड़े बने देश के विश्वविद्यालयों की दशा और दिशा के संदर्भ में राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह की पहल निश्चित रूप से ताजी हवा का झोंका है। देश की उच्च शिक्षा और खासतौर से विश्वविद्यालयों के हालातों को देखते हुए राजस्थान के राजभवन से पदेश के विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को जिस तरह का संदेश दिया गया है वह निश्चित रूप से आज की आलोचना-पत्यालोचना और राजभवन को सियासी नजरिये से देखते चहुं ओर कमियां ढूंढते बुद्धिजीवियों के लिए भी किसी तमाचे से कम नहीं माना जा सकता। दरअसल देश के विश्वविद्यालयें की अध्ययन-अध्यापन और शोध संदर्भ की स्थिति से कोई अनभिज्ञ नहीं है। विश्वविद्यालयों की पतिष्"ा में कमोबेश सभी जगह गिरावट देखी जाने लगी है। शोध और अध्ययन कहीं पीछे छूट गया है। दुनिया के शैक्षणिक संस्थानों की सूची में ढूंढने पर भी हमारे विश्वविद्यालयों का नाम दूर तक दिखाई नहीं देता हैं। कभी दुनिया के 100 श्रेष्" विश्वविद्यालयों में नाम ढूंढते रह जाते हैं तो कहीं दो सौ की सूची में भी तलाश बनी रहती है। यह सबतो तब है जब विश्वविद्यालय एक तरह से स्वतंत्र है। हांलाकि स्वतंत्रता या यों कहें कि स्वायत्तता का दुरुपयोग भी आम होता जा रहा है। अभी पिछले दो तीन सालों में जिस तरह से देश के नामचीन विश्वविद्यालय जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में राष्ट्र विरोधी जुमलों और नारों और इनके समर्थन में सियासी नौटंकी से सारा देश वाकिफ है। आखिर शिक्षण संस्थान अपनी गरिमा बनाए रखने में भी सफल नहीं हो पाते हैं या यों कहें कि स्वायत्तता के नाम पर देश विरोधी गतिविधियां खुलआम की जाती हो तो इससे अधिक दुर्भाग्यजनक क्या होगा। वास्तव में यह स्थितियां चिंतनीय और समूचे देश को चेताने वाली है। यदि स्वतंत्रता के नाम पर देश विरोधी गतिविधियां की जाती है तो उसे किसी भी बुद्धिजीवी या राजनीतिक दलों दलों द्वारा राजनीतिक रोटियां सेंकने के पयास किए जाते हैं तो इसे किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। विश्वविद्यालयों के माहौल की तो यह स्थितियां हो गई कि पहले कुलपति बनने या पशासनिक पद पाने के लिए जोड़ तोड़ में लगे रहना और इस सबसे परे नए कुलपति से गोटियां नहीं बै"ती है या हित नहीं सदते है तो दूसरे दिन से ही शिकायतों व विरोध की राह पकड़ लेना आम होता जा रहा है। इन सबसे विश्वविद्यालयों का शैक्षणिक माहौल कहीं खो जाता है। यह सभी विश्वविद्यालयों के लिए लागू नहीं होता पर कमोबेश इस तरह की स्थिति देश के अधिकांश स्थानों पर आम होती जा रही है। राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह ने राजस्थान के विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को विश्वविद्यालयों के स्तर को सुधारने के लिए 12 सूत्र दिए हैं। जो अपने आपमें कारगर हैं। राज्यपाल की यह पहल इस मायने में भी महत्वपूर्ण हो जाती है।

-नरेश कुमार,

आजादपुर, दिल्ली।

Share it
Top