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क्या हम आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में कमजोर हैं?

👤 | Updated on:21 Sep 2011 7:31 PM GMT
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  जोगिंदर सिंह दिल्ली हाई कोर्ट के बाहर 7 सितम्बर को हुए बम धमाके में कम से कम 15 लोग मारे गए और 82 अन्य घायल हो गए। राजनीति, खास तौर से वोट बैंक की राजनीति के चलते हम कमजोर हो गए है और हमें आसानी से निशाना बनाया जा सकता है। निम्नलिखित तथ्य अपनी कहानी खुद कहते हैं। देशभर में मुम्बई, पुणे, अहमदाबाद, सूरत, बेंगलुरु, कोयम्बटूर, लखनऊ, वाराणसी, अयोध्या, असम तथा दूसरे शहरों को छोड़कर सिर्फ राजधानी में  1996 के बाद से यह 20वां हमला है। मद्रास हाई कोर्ट ने राजीव गांधी की हत्या में लिप्त तीन लोगों को फांसी देने पर रोक लगा दी है। इससे पहले उच्चतम न्यायालय द्वारा फांसी की सजा के खिलाफ उनकी याचिका रद्द की जा चुकी है और राष्ट्रपति ने उनकी दया याचिका को भी खारिज कर दिया था। तमिलनाडु विधानसभा ने एक पस्ताव पारित करके उनकी मौत की सजा को माफ करने की सिफारिश की है। इस पस्ताव के बाद जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री ने संसद पर हमले में शामिल एक मुसलमान आतंकवादी को सुनाई गई मौत की सजा को माफ करने की मांग की है और इसी पकार की रियायत की मांग पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह को मारने वाले एक सिख आतंकवादी की फांसी की सजा के मामले में की गई है। 1995 के बाद से मौत सजा तो एक तरह से बंद ही हो गई है। 1995 में धनंजय को फांसी दी गई थी। यह सच है कि उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद (जिसे अभी तक चुनौती नहीं दी गई है) मौत की सजा कहानी-सी बन गई है। उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में कहा था कि मौत की सजा दुर्लभतम मामलों में ही दी जानी चाहिए। एक आम आदमी के तौर पर मेरा यह मानना है कि हत्या तो हत्या ही है, चाहे निर्ममता से की गई हत्या हो या सोच-समझ कर सादा तरीके से की गई हो। दरअसल, व्यक्तिगत रक्षा के अधिकार के तहत कानून सभी नागरिकों को अपनी जान बचाने का अधिकार देता है, कुछ खास परिस्थितियों में मारने का अधिकार देता है। सच तो यह है कि कई हत्याएं जिन्हें आप किसी भी नाम से पुकारें, चाहे अचानक या गम्भीर उकसावे के कारण की गई हों या तेज रफ्तार और लापरवाही से वाहन चलाने के कारण हुई हों, उनमें कम सजा होती है। हत्या तो हत्या है, चाहे सोते हुए लोगों पर गाड़ी चढ़ाने से हुई हत्या हो या फिर किसी को गोली मार देने से हुई हत्या हो। किसी सभ्य समाज में रहते हुए लोगों से उम्मीद की जाती है कि वे कानून का पालन करेंगे और अपने गुस्से को काबू में रखेंगे। किसी दूसरे को नुकसान पहुंचाने के बारे में बाइबल में कहा गया है, ``अगर कोई नुकसान होता है, तो आप मौत के बदले मौत, आंख के बदले आंख, दांत के बदले दांत, हाथ के बदले हाथ, पांव के बदले पांव, जलाने के बदले जलाने के रूप में उसकी भरपाई करोगे...'' इस सिद्धांत के मूल में यह सिद्धांत है कि पभावित पक्ष को बदले में उसी तरह की कार्रवाई करने का अधिकार है। दरअसल भारत में मौत की सजा देने की प्रक्रिया इतनी धीमी है कि लगता है कि यह सजा है ही नहीं। अमनेस्टी इंटरनेशनल के आंकड़ों के अनुसार 2007 में कम से कम 100 लोगों को, 2006 में 40 को, 2005 में 77 लोगों को 23 लोगों को और 2001 में 33 लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई थी। 2010 में भारत में 105 से अधिक लोगों को मौत सजा सुनाई गई थी, लेकिन इनमें से किसी को भी उस साल में फांसी नहीं दी गई। भारत में होने वाले 3 साल से 10 साल तक के बच्चों के साथ बलात्कार, बच्चों को गलत कामों के लिए इस्तेमाल, जिससे मौत तक हो जाती है, सम्मान के नाम पर, बलात्कार की कोशिशों को रोकने में लड़कियों की हत्या, सुपारी हत्याओं, आतंकवाद आदि जैसे अपराध, अत्यंत जघन्य अपराध हैं, जिनके लिए एक बार से भी अधिक अगर मौत की सजा दी जा सकती तो वह भी कम होती। अगर किसी दुष्कर्म से बच्चा बच भी जाता है तो जिंदगी भर के लिए इसकी पीड़ा से उबर नहीं पाता है। लेकिन सुरक्षा तथा तमाम सुविधाओं के बीच रहने वाले लोगों को पीड़ितों के अधिकारों की चिंता किसे है। तकनीकी दृष्टि से राज्य दोषी होता है, लेकिन असल में पीड़ित तो पीड़ित ही होता है, राज्य सरकार नहीं। फौजदारी न्याय पणाली की हम सब तारीफ करते हैं, लेकिन अपराध की हकीकत यह है कि अपराधियों के अधिकार, पीड़ितों से अधिक होते हैं। सच तो यह है कि चाहे हत्यारा हो या बलात्कारी या फिर आतंकवादी, किसी भी हत्यारे को ढूंढ भी लिया जाता है, तो वह कानून की मदद से बेदाग छूट जाता है। लेकिन, अगर आप पीड़ित हैं या किसी पीड़ित के माता-पिता या सम्बंधी हैं तो एक पकार से आपके कोई अधिकार नहीं हैं। अन्यथा, राजीव गांधी के हत्यारों और अन्य 11 तथा संसद के हमलावर के पति राज्य नरमी बरतने की गुहार क्यों लगाते। एक राष्ट्र के रूप में हमारी या कम से कम हमारे शासकों की पाथमिकतों बड़ी अजीब हैं। जिंदगी कोई सिनेमा या टेलीविजन सीरियल नहीं है कि 15 मिनट में अपराधी को अदालत में घसीट कर लाया जा सकता है। एक घंटे में ही हत्यारे पर मुकदमा भी चल जाता है, उसे दोशी भी करार दे दिया जाता है और जेल भेज दिया जाता है या फिर फांसी की सजा सुना दी जाती है। हिंसक अपराध का पीड़ित सोचता है कि अपराध उसके खिलाफ हुआ था। लेकिन हमारी व्यवस्था का कहना है किसी व्यक्ति के खिलाफ अपराध, राज्य के खिलाफ अपराध होता है, जो पूरी तरह से तटस्थ हस्ती होती है। इस सबका परिणाम यह होता है कि अपराधियों के लिए तो संवैधानिक अधिकारों का जबरदस्त सहारा होता है, जबकि पीड़ित को तो रामभरोसे छोड़ दिया जाता है और आपराधिक न्याय पणाली उसे भुला देती है। दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीष, एपी षाह ने 2008 की उच्च न्यायालय की रिपोर्ट जारी करते हुए कहा था कि अदालत को सभी लम्बित 2,300 अपीलों को निपटाने में 466 साल लग जाएंगे। भारत में 21 उच्च न्यायालयों में चालीस लाख से भी अधिक मुकदमे लम्बित पड़े हैं। देशभर की अधीनस्थ अदालतों में दो करोड़ 63 लाख मुकदमे लम्बित हैं। सालीसिटर जनरल आफ इंडिया के अनुसार फौजदारी अदालतों में विलम्ब के लिए अगर उत्तर पदेश को उदाहरण के रूप में लिया जाए तो अगस्त 2011 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 10,541 फौजदारी मामलों की सुनवाई को स्थगित कर दिया था, जिनमें से 9 पतिशत 20 साल से अधिक से पेन्डिंग पड़े थे और 21 पतिशत को एक दशक से भी अधिक हो गया था। मतलब यह कि 30 पतिशत जघन्य अपराधों की सुनवाई दस साल से भी अधिक टली रही। उच्चतम न्यायालय ने कहा, ``दुख की बात है कि न्याय व्यवस्था इस हालत में पहुंच गई है। हाई कोर्ट मामलों को स्थगित कर देता है और फिर उन्हें भूल जाता है। मतलब यह कि हम न्याय व्यवस्था का गला घोंट रहे हैं। किसी को भी ईमानदार और त्वरित सुनवाई से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन पीड़ितों का क्या होता है? उस समाज का क्या, जो अपराधी को जल्द से जल्द सजा दिलाना चाहता है। इन स्थगनादेशों से हम इन सब बातों को रोक रहे हैं।'' आतंकवाद हो या साधारण अपराध, जब तक अपराधियों और आतंकवादियों को यह संदेश नहीं मिलता कि जवाबी कार्यवाही तुरंत और त्वरित होगी, वे इसी पकार अपराध करते रहेंगे। सरकार को याद रखना चाहिए कि सोफोक्लीस ने क्या कहा था ः ``उस गवर्नर के पति मेरे मन में नफरत के सिवाय और कुछ नहीं है, जो किसी भी कारण से उस रास्ते को अपनाने से डरता हो, जिसे वह अपने राज्य के सर्वश्रेष्" हित में मानता हो।''            (अडनी)    

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