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`मेरी सादगी देख मैं क्या चाहता हूं'

👤 | Updated on:14 May 2010 1:28 AM GMT
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बुरा हो उन 50 करोड़ भूखे हिन्दुस्तानियों का जो रात के वक्त पेट पर पत्थर बांधकर सोते हैं और इसी बात पर तड़प उठते हैं कि देश की पार्लियामेंट के मेम्बर जिन्हें इस वक्त 18 हजार रुपये वेतन मिलता है उन्होंने मिलकर सरकार से मांग कर दी है कि उनका मासिक वेतन में एक मामूली सा इजाफा किया जाए और वह इजाफा यह है कि 18 हजार रुपये माह के बजाय उन्हें देशवासियों की सेवा के लिए एक लाख रुपये मासिक वेतन दिया जाए। हिन्दुस्तान के देहात में रहने वाले इन भूखें-नंगे गंवारों से कोई पूछे कि उन्हें क्यों मिर्चे लग गईं कि जब उन्होंने पढ़ा कि देश के यह मशहूर लोग अपने मासिक वेतन में एक हकीक सा इजाफा करना चाहते हैं। क्यों यह भुला दिया गया कि यह लोग जहां भी जाते हैं सरकारी खर्च पर जाते हैं। सरकारी मेहमान होते हैं। उनके सफर के लिए बसें और मोटर-कारें खड़ी हैं। मकान उन्हें मुफ्त मिले हुए हैं। यह मामूली सी रियायत उन लोगों को मिली हुई हैं और कौम की खातिर यह पार्लियामेंट में आए दिन हंगामे करते रहते हैं। कहा जाता है कि यह लोग जनता की समस्याएं पार्लियामेंट में सरकार के आगे अपने सवालों की शक्ल में रखते हैं। लेकिन क्या हुआ अगर 30 के करीब मेम्बरों ने लोकसभा के सारे इजलास में जुबान न खोली और बिल्कुल खामोश तमाशबीन बनकर कार्यवाही देखते रहे। मुझे हैरानी हुई जब मैंने पढ़ा कि अपने देशवासियों की इतनी बड़ी सेवा करने वाले लोगों का मासिक वेतन  में एक मामूली सा इजाफा किया जा रहा है। क्यों नहीं हम लोग अमेरिका, बरतानिया वगैरह में कानून बनाने वालों की रियायतें पर नजर रखते। जब भी जरूरत होती है तो यह लोग अपने हलके के अवाम की समस्याओं को सरकारी गाड़ियों में बैठकर अधिकारियों के घरों में पहुंच जाते हैं और उनसे अपने हलके के अवाम की परेशानियों का जिक्र करते हैं। अपनी जिम्मेदारी यह उतनी ही समझते हैं। अवाम की शिकायतें दूर होती हैं या नहीं, इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं। उनकी जिम्मेदारी जब उन्हें फुर्सत हो तो अवाम के कानों तक पहुंचाने की है। इस पर असर वो अपने मासिक वेतन में थोड़ा सा इजाफा कर रहे हैं तो कौन सा अंधेर हो जाना है। क्योंकि उनकी ईमानदारी और अपने हलके के लोगों की मुसीबतों पर नजर नहीं डालते। जब मैं यह सारे हालात पढ़े तो मुझे आजादी के दिनों से पहले की याद आ गई जब एक शायर ने ऐसे ही हालात पर तड़पने वाले बड़े-बड़े के बारे कहा था। `कौम के गम में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ। रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ।। वस्तुस्थिति यह है कि हमारे संसदीय मेम्बर भारतीय संस्कृति के चाहने वाले हैं और अवाम की खातिर जो कुर्बानियां देते हैं उनका कभी जिक्र नहीं करते। शायद यही कारण है कि हमारे लोगों को यह भी पता नहीं कि हमारे हिन्दुस्तान के तर्जुमान 18 हजार रुपये मासिक वेतन से बढ़ाकर एक लाख रुपये लेने की कोशिश कर रहे हैं। मेरी भगवान से प्रार्थना है कि यह देखें कि इस इजाफे से उन लोगों के पेट में दर्द तो नहीं होगा। आखिर इतनी कुर्बानी देने वाले लोगों की सेहत की खराबी पर किस भूखे-नंगे देहाती को तड़प न होगी।

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