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जवाहर लाल जी की याद

👤 | Updated on:28 May 2010 4:45 PM GMT
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कोई नहीं जानता कि भगवान ने किस इंसान को कैसे बनाया है। कुछ समय तो देखकर हैरानी होती है और जब तक उस इंसान का कोई अनुभव न हो यह विश्वास करना मुश्किल होता है कि जो खूबियां किसी की बयान की जा रही हैं वे वाकई उसमें हैं। मेरे दिमाग में इस समय बापू गांधी का नाम है। गांधी जी को मैं पूरा इंसान तो नहीं कहूंगा लेकिन 99 प्रतिशत जरूर कहूंगा। इसलिए कि तमाम खूबियों के बावजूद आप में कुछ कमजोरियां भी थीं। आज तक दुनिया में कोई इंसान जिंदगी की हर खूबी लेकर पैदा नहीं हुआ और यही बात बापू गांधी और पंडित नेहरू की हालत में साबित होती है। भगवान ने इंसान में कई कमजोरियां भी डाल रखी हैं। यह दूसरी बात है कि उन कमजोरियों को छिपाया जा सकता है या नहीं और अगर छिपाया जा सकता है तो कब तक। यह सारी फ्लासफीकल बातें मैं इसलिए कह रहा हूं कि पंडित जी की जिंदगी में भी दो ऐसे वाकयात हुए हैं जिनसे यह साबित होता है कि आप कहते कुछ थे और करते कुछ थे। मैंने अभी पिछले दिनों आपके अपने अंदाजे का जिक्र किया था जिसमें पंडित जी ने यह कहा था कि वह विचारों के लिहाज से अंतर्राष्ट्रीय हैं और रहन-सहन के मामले में यूरोपीय हैं, जहां तक कल्चर का ताल्लुक है आप मुसलमान हैं और जहां तक हादसों का ताल्लुक है आप हिन्दू हैं। किसी इंसान की जिंदगी में उसकी कमजोरियों का जिक्र नहीं होता। लेकिन कुछ समय करना पड़ता है। अपनी दूसरी खूबियों के अलावा पंडित जी अपने आपको सैक्युलर साबित करना चाहते थे और इसका सबसे बड़ा सबूत आपने भारत की तक्सीम के बाद दिया। जब भारत से चले गए सैकड़ों मुसलमानों को पाकिस्तान के शरणार्थी कैम्पों से निकालकर वापस लाने के लिए साराभाई को लाहौर भेजा ताकि वह शरणार्थी कैम्पों में पड़े मुसलमानों को वापस ले आए। साराभाई गई लेकिन उसे वह कामयाबी न मिली जिसकी उम्मीद पंडित जी ने की थी। पाकिस्तान जाने वाले मुसलमानों को वापस लाने की कोशिश से आप दुनिया को यह बताना चाहते थे कि आप कट्टर सैक्युलर और मुस्लिमनवाज  विचारों के हैं। लेकिन यह खूबी तब तक ही रही जब तक अपने पर इसका अनुभव न हुआ। इसके लिए एक दिलचस्प कहानी है। यह उन दिनों की बात है जब अंग्रेजों के खिलाफ जद्दोजहद चल रही थी और इलाहाबाद में अपनी कोठी में अंग्रेजी का एक साप्ताहिक अखबार `इंडिपेंडेंट' प्रकाशित होता था। इसके एडीटर एक मुस्लिम नौजवान थे जिनका नाम शायद  सईद अहमद था। सईद अहमद एक खूबसूरत नौजवान थे, काबिल थे, जहीन थे और इस वजह से जवाहर लाल जी की बहन विजयलक्ष्मी से उनकी आंख लड़ गई। दोनों एक निहायत खूबसूरत जोड़ा नजर आते थे और दोनों ने फैसला कर लिया था कि वह शादी करके एक हो जाएंगे। मामूली हालात में पंडित जी को इस पर कोई एतराज नहीं होना चाहिए था लेकिन शायद उन दिनों के माहौल में हिन्दू-मुस्लिम एकता अभी उतनी प्रचलित न हुई थी कि ऐसे वाकयात को दरगुजर कर दे। इसलिए जब यह खबर फैलने लगी तो पंडित जी किसी कद्र परेशान हो गए। उन्हें सईद अहमद में सब खूबियां नजर आ रही थीं लेकिन चूंकि वो मुसलमान था इसलिए आपका दिमाग उसे अपना बहनोई बनाने को तैयार न था। आप सोचने लगे कि किस तरह इस शादी को रोका जाए। अपनी सैक्युलर शोहरत को ध्यान में रखते हुए आप यह बर्दाश्त न कर सकते थे कि लोग यह कहना शुरू कर दें कि जवाहर दूसरों को तो उपदेश देते रहते हैं लेकिन जब अपने पर पड़ी है तो आप बेहाल हो उठे। यह बात दिन-रात पंडित जी को परेशान कर रही थी और जब उन्हें इसका कोई हल नजर न आया तो आप बापू के दरबार में हाजिर हुए और सारा माजरा गांधी जी को बता दिया। गांधी जी ने जवाहर लाल को हिम्मत दी कि घबराओ मत, सारा मामला ठीक हो जाएगा। उन्होंने विजयलक्ष्मी को बुलाया और उससे पूछा कि क्या वे सईद अहमद से शादी करने वाली है। विजयलक्ष्मी ने जवाब दिया कि `जी हां।' इस पर गांधी जी ने कहा कि वे तो मुसलमान है। तुम उससे कैसे शादी कर लोगी। अगर करनी ही है तो उससे पूछो कि क्या वे हिन्दू हेने को तैयार है। विजयलक्ष्मी ने इतमिनान का सांस लिया और यही सोचा कि जब वे मुसलमान बनने को तैयार है तो सईद अहमद को हिन्दू बनने पर क्या एतराज होगा। लिहाजा जब सईद अहमद गांधी जी के पास पहुंचा तो गांधी जी ने उससे भी यही सवाल किया जो विजयलक्ष्मी से किया था और पूछा कि क्या तुम हिन्दू बनने को तैयार हो। इस पर सईद अहमद ने कोरा इंकार कर दिया। इस इंकार पर बापू ने विजयलक्ष्मी को बुलाया और सवाल किया कि जब सईद अहमद हिन्दू बनने को तैयार नहीं तो फिर तुम कैसे मुसलमान बन रही हो। विजयलक्ष्मी के पास कोई जवाब न था और नतीजा यह हुआ कि उसने यह समझ लिया कि सईद अहमद एक हद तक ही उसे चाहता है, उससे आगे जाने को तैयार नहीं। इसी बात ने विजयलक्ष्मी के दिमाग पर भी असर किया और उसने भी सोचना शुरू किया कि अगर सईद अहमद उससे उतना ही प्यार करता है और शादी के लिए तड़पता है तो क्यों नहीं वे हिन्दू बन जाता और जब इस मसले पर उसने ध्यान दिया तो उसके पास भी कोई जवाब न था। नतीजा यह हुआ कि दोनों का इश्क और मोहब्बत काफूर हो गया और कुछ दिनों के बाद एक कश्मीरी हिन्दू नौजवान को चुनकर उसकी शादी विजयलक्ष्मी से कर दी गई। इस तरह यह क्राइसिस खत्म हुआ। जब मैं इस बारे में सोच रहा था तो मुझे अचानक शायरे हिन्दू मोहम्मद इकबाल साहब की याद आ गई। अपने नौजवानी के दिनों में आप भी सैक्युलर थे और हिन्दुओं की आदत और रोजमर्रा की प्रैक्टिस देखकर सवाल करते थेö `पत्थर की मूर्ति में तूने खुदा है देखा मेरे लिए वतन का हर जर्रा देवता है' यह थे किसी समय सर मोहम्मद इकबाल साहब के विचार। लेकिन उन्होंने भी ऐसा पलटा खाया कि आपने कहना शुरू कर दिया कि भारत के हिन्दू और मुसलमान बुनियादी तौर पर दो अलग-अलग कौमें हैं। इसलिए उनका इकट्ठा रहना नामुमकिन बात है। जिस मोहम्मद इकबाल को किसी समय भारत की जमीन के जर्रे-जर्रे में देवता नजर आता था उसी भारत की जमीन को आपने मुसलमानों का दुश्मन कहकर दो टुकड़ों में बांटना मान लिया। यह दो बड़ी मिसालें मैंने दी हैं जिनसे यह साबित हो सके कि कोई ऐसा इंसान शायद ही आपको नजर आए जो अपने विचारों में कट्टर है और जिसे कोई दलील अपील नहीं करती। पंडित नेहरू के दिल में मुसलमानों के लिए कितनी इज्जत और  कद्र थी इसका सबूत तो आपने यह कहकर दे दिया कि आपका कल्चर इस्लामी है और वही इस्लामी कल्चर आपकी सियासत पर हावी हो गया है। उसी कल्चर की मेहरबानी से आज इस देश के गरीब हिन्दू पाकिस्तानियों और तालिबानियों के हाथों कत्ल हो रहे हैं। मैं सोचता हूं कि अगर ऐसे वक्त पर जवाहर लाल जी जिंदा होते तो क्या करते। तालिबान पूरी ईमानदारी से कुरान शरीफ को अपना रहनुमां मानते हैं और जिस कुरान शरीफ में गैर-मुस्लिमों को काफिर कहकर मार डालना सवाब का काम है उस इस्लाम पर कितनी देर कोई भरोसा कर सकता है। मैं लम्बी-चौड़ी बहस में नहीं पड़ना चाहता। मैंने दो हिन्दुस्तानी हस्तियों का जिक्र कर दिया है और साबित कर दिया है कि किस तरह नाजुक वक्त पर बड़े-बड़े सूरमां भी कागजी पहलवान बनकर रह जाते हैं।  

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