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मिट रहा है फासला तेरे, मेरे, अपने का

👤 | Updated on:31 May 2010 3:28 PM GMT
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`पफासले सरहदों से नहीं, दिमाग से आंके जाते हैं' -रूडयार्ड किपलिंग महाभारत का यु( खत्म हो चुका है। कुरुवंश का विनाश हो चुका है। अपने पुत्रााsं और परिजनों की लाश पर खड़े ध्श्तराट्र और गांधरी शोक के सागर में डूबे हुए हैं। तभी कृष्ण पहुंचते हैं और गांधरी को पणाम करते हैं। गांधरी पूछती हैं कौन और खुद ही जवाब देती हैं, वासुदेव! गांधरी गुस्से में हैं और कृष्ण को पापी कहती हैं। इस पर कृष्ण कहते हैं, `पापी हूं या परंतप पर पुत्रा तो हूं आपका'। गांधरी का गुस्सा उतरता है तो उन्हें पश्चाताप होता है कि उन्होंने कृष्ण को श्राप क्यों दिया। लेकिन अब तो श्राप दिया जा चुका था। वह कहती हैं इसे तो भुगतना ही पड़ेगा, अच्छा हो या बुरा। कुछ यही स्थिति भूमंडलीकरण की है। पिछले दो दशकों से जब से भूमंडलीकरण ने अपना विस्तार उत्तरी ध्g्रव से दक्षिणी ध्g्रव तक करना शुरू किया है, इसके आलोचक लगातार अलोचना कर रहे हैं। सबसे ज्यादा भूमंडलीकरण पर तोहमत सांस्कृति घालमेल की लगाई जा रही है। शु(तावादी यानी भूमंडलीकरण के विरोध बाकी चीजों पर तो भले बेमन से भूमंडलीकरण को स्वीकार भी कर लेंऋ लेकिन संस्कृति में उन्हें जरा भी मेल-मिलाप पसंद नहीं, यही कारण है कि शु(तावादी चाहे पाकिस्तान के हों, हिन्दुस्तान के हें, थाइलैंड के हों, मैक्सिको के हों, सबके सब ग्लोबलाइजेशन पर लानत-मलानत भेज रहे हैं। सबको लगता है कि इस भूमंडलीकरण ने उनकी गौरवमयी संस्कृति को भ्रष्ट और अशु( कर दिया है। लेकिन शायद परिवर्तन का नियम यही है कि लाख आलोचनाओं के बाद भी पगति का रथ नहीं रुकता। वह आगे बढ़ता ही रहता है। कुछ ऐसा ही भूमंडलीकरण के साथ भी हो रहा है। रियोडीजेनरो से लेकर कोपेनहेगन तक पर्यावरण और जलवायु को बचाने के लिए एकजुट होने के आह्वान से लेकर भूमंडलीकरण के विरोध के परचम लहराए जाते रहे हैं। लेकिन भूमंडलीकरण इस सबके बावजूद हर गुजरते दिन के साथ आगे ही बढ़ता जा रहा है। सवाल है क्या भूमंडलीकरण वाकई इतना खराब है? क्या वाकई भूमंडलीकण के चलते कुछ संस्कृतियां अपना अस्तित्व खो रही हैं? और कुछ दूसरी वर्चस्ववादी संस्कृतियां कम ताकतवर देशों पर हावी हो रही हैं? इन सवालों के जवाब आप जैसा चाहे दे सकते हैं। दरअसल आंकड़ों की यही खूबी होती है कि चाहे तो आप आध गिलास खाली कह दें या कह दें कि आध गिलास भरा है। आंकड़े पस्तुतिकरण के तौर तरीके पर निर्भर करते हैं। इसलिए यह कहना कि भूमंडलीकरण ने सांस्कृतिक विविध्ता को छीन लिया है, सही नहीं है। भारत में जो मां-बाप यह देखते हैं कि उनके बच्चे पिज्जा-बर्गर के दीवाने हो गए हैं और इस तरह अपनी पारंपरिक खानपान की संस्कृति को भूल रहे हैं, वह इस बात को कभी जानने की कोशिश नहीं करते कि आज लंदन में 750 ऐसे रेस्तरां खुल गए हैं जहां कढ़ी और जलेबी खानेवाले अंग्रेजों का ताता लगा रहता है। हम कभी इस बात को तवज्जो नहीं देते कि कैसे आज लॉस एंजिल्स और कैलिपफोर्निया में सबसे लोकपिय पफास्टपफूड में समोसा और डोसा उभर कर आए हैं। दरअसल हम दूसरे की घुसपै" को नकारात्मक रूप से चिन्हित करते हैं और उससे खुद को, खुद की संस्कृति के लिए खतरा महसूस करते हैं और अपने विस्तार को अपना स्वाभाविक हक मानते हैं। हमें लगता है कि हममें तो यह खूबी है ही कि हमारा अनुसरण पूरी दुनिया को करना चाहिएऋ लेकिन दुनिया की कोई चीज भला हमसे बेहतर कैसे हो सकती है जिसे हमारा मन अपनाने का करे। दरअसल सांस्कृतिक असुरक्षाबोध् सिपर्फ इतने पर ही टिका है कि हम अपने को सर्वश्रेष्" मानते हैं और यह मानकर चलते हैं कि हम परिपूर्ण हैं। हमे किसी और की तरपफ झुकाव की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन व्यवहार में ऐसा संभव नहीं होता। नई पीढ़ी हमेशा ज्यादा व्यवहारिक और पूर्वाग्रहों से ज्यादा मुक्त होती है। चाहे मामला रिश्तों का हो, खानपान की संस्कृति का हो, विचारों का हो या नौकरी कॅरिअर आदि का हो। यही कारण है कि पूरी दुनिया की नई पीढ़ी अपने मां-बाप और उन शु(तावादियों की बिल्कुल नहीं सुन रही जो भूमंडलीकरण को इस दौर का सबसे बड़ा दानव करार दे रहे हैं। यही वजह है कि तमाम विरोधें और अस्वीकृतियों के बावजूद भूमंडलीकरण का कारवां दिन पर दिन आगे बढ़ता ही जा रहा है और सांस्कृति वर्चस्व के इस दौर में वैश्विक सांस्कृतिक वैविध्यता का माहौल बन रहा है। शायद यह जानकर आपको हैरानी हो कि बेन किंग्सले की गांध पिफल्म के बाद खादी को अपने वार्डरोब में शामिल करने वालों में भारत से कई गुना ज्यादा ब्रीतानी और अमरीकी युवाओं ने हौसला दिखाया था। आज गांध भारत में तो पूजा की वस्तु हैं मगर पश्चिम में वह खूब कोटेबल कोट्स के तौर पर उभर रहे हैं। कुल मिलाकर सांस्कृतिक वैविध्यता पफल पफूल रही है, तमाम कट्टरपंथियों के विरोधें के बावजूद। चूंकि लोग अपने देश और अपने संस्कृति को लेकर ज्यादा ही भावुक होते हैं इस वजह से कट्टरपंथी हमेशा आम लोगों की इसी कमजोर नस पर हमला करते हैं। लेकिन हकीकत यह है कि कट्टरपंथियों की जमात हर क्षेत्रा में मौजूद होती है। जो लोग नब्बे की दशक में दिन रात एक करके हव्वा खड़ा किए थे कि बहुराष्ट्रीय कंपनी के आने से भारत में देसी कारोबार चौपट हो जाएगा और एक बार पिफर से देश नई तरह की आर्थिक गुलामी में पफस जाएगा, वो लोग अब भले बगलें झांक रहे हों लेकिन इस बात में उन्हें कतई शरम नहीं आती जब वह यह कहते हैं कि भारतीय कंपनियां तो विदेश जाकर कारोबार करें, लाभ कूटें, अपना विस्तार करेंऋ लेकिन उन्हीं की जैसी विदेशी कंपनियां भारत न आए। इस मायने में तर्कवादी कम्यूनिस्ट भी किसी तरह के तर्क की चिंता नहीं करते। उन्हें यह याद नहीं रहता कि लाइपफ इंश्योरेंस कारपोरेशन ऑपफ इंडिया दुनिया के 69 देशों में कारोबार कर रही है और स्टेट बैंक ऑपफ इंडिया दुनिया के 83 देशों से ज्यादा अपना विस्तार कर चुकी है। लेकिन वह यह कतई नहीं चाहते कि जनरल इंश्योरेंस ऑपफ अमेरीका या पूडेंशियल हिन्दुस्तान आएं और कारोबार करें। यह दोहरा मानदंड है, दोहरा रव्वैया। दुनिया कभी इसे मान्यता नहीं दे सकती यहां तक कि साम्राज्यवादी अवसरवाद के दिनों में भी ऐसी मान्यताओं को तरजीह मिली। न ही हमेशा हमेशा के लिए किसी विचार को अपने पफायदे के लिए दूसरे पर स्थाई रूप से थोपा जा सका। इसलिए भूमंडलीकरण के इस दौर में सांस्कृतिक मेल-मिलाप, अंतरंगता और वैविध्यता को रोका ही नहीं जा सकता और रोका भी नहीं जाना चाहिए। वीना सुखीजा  

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