हर दिन मनाएं अर्थ डे
ग्लोबल वार्मिंग के लगातार बढ़ते स्तर को कम करने के लिए दुनियाभर में अपने-अपने स्तर पर पयास किए जा रहे हैं। मगर इन पयासों से ग्लोबल वार्मिंग कम हो रही हो, ऐसा तो कहीं से भी नजर नहीं आ रहा है। लेकिन जो नुकसान हो रहे हैं शायद वही रुक जाएं और इससे आगे ध्रती को ग्लोबल वार्मिंग के पकोप से बचाया जा सके। बीते दिनों अर्थ डे के मौके पर दुनियाभर में ग्लोबल वार्मिंग को लेकर तमाम आयोजन किए गए। इसमें ध्रती को बचाने के लिए तरह-तरह के पयोगों और पयासों की व्याख्या की गई व इन्हें लागू करने पर भी जोर दिया गया। जैसे-जैसे धरती गर्मा रही है वैसे-वैसे ही ध्रती को बचाने की मुहिम तेज होती जा रही हैऋ लेकिन सिपर्फ अर्थ डे के मौके पर नजर आने वाले इस उत्साह से काम नहीं चलेगा। ध्रती को वाकई ग्लोबल वार्मिंग के पभाव से बचाना हो तो हर दिन अर्थ डे मनाना होगा तभी ध्रती को कुछ राहत मिलेगी। आध्gनिकता और तरक्की के नाम पर ध्रती का दिनों दिन दोहन करने वाले देशों में भारत भी पीछे नहीं हैं। पिछले 100 वर्षों में ध्रती का तापमान तकरीबन 1 डिग्री पफॉरेनहाइट बढ़ा है। 2010 अब तक के ज्ञात इतिहास का सबसे गर्म साल साबित हुआ है। 19वीं सदी में वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड का जो स्तर था वह इस समय दोगुना हो चुका है। उद्योग, बिजली का निर्माण करने वाले संयंत्रा, खेती और यातायात के सभी साध्न, ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की ये चार मुख्य वजहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ने में कार्बन डाई ऑक्साइड और मीथेन ही मुख्य ग्रीनहाउस गैसें हैं। वातावरण को बचाने के लिए दुनियाभर के वैज्ञानिकों द्वारा बनाई गई इंटरगर्वन्मेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज के अनुसार पिछले 100 वर्षों में ध्रती का तापमान जिस तेजी से बढ़ा है उससे यही लगता है कि अगर इस तापमान में मात्रा 1 डिग्री की भी बढ़ोत्तरी हुई तो ध्रती में उथल-पुथल मच जाएगी। इसे नियंत्राण में लाने के लिए जल्द ही कुछ न कुछ उपाय तो करने ही होंगे जो ध्रती को "ंडा रख सकें। ऐसा तभी संभव है जब हर डे को अर्थ डे के रूप में अहमियत दी जाएगी। दुनिया भर में इस समय ध्रती को बचाने की जो मुहिम चल रही है, उसमें भारत कापफी पीछे है। भारतीय ध्रती पर भी ग्लोबल वार्मिंग का पभाव बाकी दुनिया की ही तरह होता दिख रहा हैऋ लेकिन तेजी से बदलती वातावरणीय स्थितियों के बावजूद भारतीय जनता और पशासन दोनों ही ढीला-ढाला रवैया अपनाए हुए हैं। वातावरण पर हुए अध्ययनों के अनुसार वर्ष 2050 तक देश का तापमान 3.2 डिग्री सेन्टीग्रेड बढ़ चुका होगा और 2080 में इसके 4.5 डिग्री सेन्टीग्रेट तक पहुंचने की आशंका है। विशेषज्ञों का मानना है कि वर्ष 2050 तक भारत में गर्मियों के बाद होने वाली बरसात में भारी कमी आ जाएगी। इससे गर्मी का मौसम 4 के बजाए 8 से 10 महीने तक चलता रहेगा। इस नाकारात्मक बदलाव को रोकने के लिए विशेषज्ञ एक ही उपाय सुझाते हैं, जितना ज्यादा हो सके पेड़ लगाएं। देश में अर्थ डे या इन्वायरमेंट डे के मौके पर तो वक्षारोपड़ के कार्यक्रम चलाए जाते हैं लेकिन बाकी दिनों में हम यह भूल ही जाते हैं कि ध्रती किस दौर से गुजर रही है। अपने आस-पास उपलब्ध् खाली जगहों में अगर रोजाना एक पेड़ भी लगाया जाए तो ध्रती को बचाने की मुहिम में हम सबसे आगे होंगे। भारत इस समय आर्थिक पगति के दौर से गुजर रहा है, जिसके कारण कार्बन के उत्सर्जन का स्तर भी कापफी बढ़ा हुआ है। जैसे-जैसे देश तरक्की की राह पर चलेगा, कार्बन उत्सर्जन का स्तर भी लगातार बढ़ता ही जाएगा। देश की बढ़ती अर्थव्यवस्था में सिपर्फ उफंची-उफंची इमारतों और उद्योगों का विकास हो रहा है। विकास के नाम पर ग्रीन बेल्ट धरे-धरे गायब होती जा रही है। मंत्राालयों द्वारा विकास पर तो खूब बहस की जाती है लेकिन कार्बन के उत्सर्जन को कम करने पर पर्यावरण मंत्राालय ही उबासी लेते हुए काम करता है तो अन्य विभागों से क्या उम्मीद की जाए। सरकार को एकबारगी किनारे भी कर दिया जाएऋ लेकिन देश की आम जनता ही इस ओर थोड़ा सा भी सजग नहीं होना चाहती। ज्यादातर भारतीयों से जब वातावरण के पदूषित होने की बात की जाती है तो सबकुछ सुनने के बाद उनका एक ही जवाब होता है, `इसमें हम क्या कर सकते हैं, हम तो अपना घर कापफी सापफ-सुथरा रखते हैं, अब बाहर की गंदगी सापफ करने की जिम्मेदारी हमारी नहीं है।' जबकि सच्चाई तो यह है कि बाहर जो भी गंदगी है, उसके जिम्मेदार भी अपने घरों को सापफ-सुथरा बताने वाले लोग ही हैं। जब तक कार्बन के उत्सर्जन को कम करने में आम जनता का सहयोग नहीं होगा तब तक कुछ नहीं किया जा सकता। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के अनुसार वर्ष 2015 तक भारत कार्बन का उत्सर्जन करने वाले देशों की श्रेणी में तीसरे स्थान पर होगा। तमाम चेतावनियों के बाद भी अगर हम भारतीय नहीं चेते तो आने वाले कुछेक सालों में हमें इसके भयानक परिणाम भुगतने होंगे। वातावरण के तेजी से बदलने के कारण दुनिया भर में ऐसे खतरनाक संकेत मिल रहे हैं कि जिनसे ध्रती की दुर्गति का अंदाजा लगाया जा सकता है। 20वीं सदी के दौरान ग्लेशियरों के पिघलने से समुदी जलस्तर 15 सेंटीमीटर तक बढ़ चुका है। कोस्टल कम्युनिटीज के अनुसार अगर हालात सुध्रे नहीं तो 21वीं सदी तक यह स्तर 59 सेंटीमीटर तक पहुंच चुका होगा। वर्ष 1950 में आर्कटिक सागर में मौजूद बपर्फ की जो मोटाई हुआ करती थी वह अब लगभग आध हो चुकी है। समय बीतने के साथ पहाड़ों पर मौजूद ग्लेशियर कम होते जा रहे हैं। आज से 100 साल पहले तक जिस हिमालय की चोटी हर समय बपर्फ जमी रहती थी, वहां अब गर्मियों के मौसम में सिपर्फ पत्थर ही नजर आते हैं। पिछले कुछ वर्षों में जिस तेजी से समुदी जीव खत्म होते जा रहे हैं, उससे समुद की भीतर हो रही हलचल का सापफ पता चलता है। वैज्ञानिकों के अनुसार सागर की सतह पर मौजूद सुप्त ज्वालामुखी अब सक्रिय होते जा रहे हैं। इनकी सक्रियता की चपेट में आकर समुद के भीतर मौजूद जीवों का आस्तित्व खतरे में आ गया है। भारत में तो ग्लोबल वार्मिंग का पकोप इस कदर बढ़ रहा है कि कुछ इलाकों में इन दिनों भारी बरसात होती है बाद में यहां बाढ़ में सैकड़ों जानें चली जाती हैं तो कहीं सूखे की ऐसी मार पड़ती है कि लोग दाने-दाने को मोहताज हो जाते हैं। इन तमाम बातों का एक ही सार है कि हम अभी भी नहीं चेते तो आने वाला समय किस हद तक दुखदाई हो सकता है, इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल हो जाएगा। के.पी. सिंह