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माओवादियों का ताजा हमला

👤 | Updated on:31 May 2010 5:08 PM GMT
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पिछले डेढ़-दो महीनों से माओवादी जिस कद्र सक्रिय हुए हैं, इससे यह नजर आता है कि उन्होंने समझ लिया है कि समय आ गया है  जब भारत सरकार भम्बलभुसे में फंस गई है और इसलिए उसका दिमाग माऊफ हो गया है। इसका नतीजा हमने यह देखा है कि तमाम बड़े-बड़े हुक्मरानों में इस बात से इख्तिलाफात हैं कि माओवादियों पर कैसे काबू पाया जाए। पिछले दिनों दंतेवाड़ा में भारतीय जवानों के एक दस्ते पर हमला कर दिया गया और उसमें 80 के करीब जवान हलाक कर दिए गए। अभी हमारे हाकिम उस हमले की तफ्सील पर गौर कर ही रहे थे कि एक और हमला हो गया जिसमें 10 के करीब हवाबाज मारे डाले गए और अब एक ताजा हमले की खबर आई है जो बंगाल के इलाके में हुआ है। माओवादियों ने एक ट्रेन को दूसरी ट्रेन से भिड़ा दिया है जिसका नतीजा यह हुआ कि 100 से अधिक मासूम शहरी हलाक हो गए जिसमें हर उम्र के लोग शामिल थे। कुछ दिनों में इस तीसरे हमले ने लोगों को यह सवाल करने पर मजबूर कर दिया है कि क्या हमारी सरकार के पास इन माओवादियों के हमलों को नाकाम करने का कोई प्लान है भी या नहीं। आज तक जिम्मेदार मंत्रियों ने जो कुछ कहा है उसे देखकर तो पता चलता है कि यह लोग हालात की शिद्दत से मुकम्मल तौर पर नावाकिफ हैं। गृहमंत्री श्री पी. चिदम्बरम ने फरमाया है कि माओवादी देश के दुश्मन हैं जो निहत्थे भारतीयों को अपनी गोली का निशाना बना रहे हैं। लेकिन अपनी फौज को उनकी हरकतें रोकने के लिए इस्तेमाल नहीं करेंगे क्योंकि फौज अपने शहरियों की बाहरी हमले से सुरक्षा के लिए बनाई गई है। यह नजरिया ऐसा है जिसने देश की जनता को यह सवाल करने पर मजबूर कर दिया है कि क्या भारत के गृहमंत्री की नजर में अपने ही देश के किसी संस्था के लोगों के हाथों कत्ल होने की हालत में सिवाय पुलिस के और किसी को इस्तेमाल नहीं किया जा सकता और जब उनसे पूछा गया कि यह माओवादी हैं तो भारतीय, लेकिन उनका अमल सरासर विदेशी हमलावरों जैसा है तो क्यों नहीं उनका मुंह तोड़ने के लिए बाकी के स्रोतों का इस्तेमाल किया जाए। प्राथमिक नजरिये से बंधे हुए गृहमंत्री के पास कोई माकूल जवाब न था कि अगर आम भारतीयों को माओवादियों से बचाने के लिए नाकाम पुलिस की बजाय हथियारबन्द फौजी जवानों को तैनात करना पड़े तो क्या इस हालत में हमारे जवान मासूम भारतीयों का कत्ल ही देखते रहेंगे या इस बात का इंतजार करेंगे कि उन्हें कोई हुक्म दे तो वह उन माओवादियो के खिलाफ मैदान में उतरें। अमर वाकया यह है कि हमारे हाकिमों का नजरिया बुनियादी तौर पर नाकिस है। हर सरकार का यह फर्ज है कि जैसे भी हो अपने शहरियों की सुरक्षा करे। उनके खिलाफ हमला कौन करता है, यह जानना उनका काम नहीं। उनका काम केवल यही है कि जो भी कोई हमल करता है उसका मुंह तोड़ कर रख दे और ऐसा न करने की एक ही वजह यह है कि उसके पास उतने संसाधन नहीं कि हमलावरों का मुकाबला कर सकें। हक तो यह है कि ऐसी कोई बात भी नहीं। भारत के पास 13 लाख के करीब बाकायदा फौजी जवान हैं। उनके अलावा फौज के तहत एक से ज्यादा  अर्द्धसैनिक बल हैं जो किसी भी विदेशी फौज का मुकाबला चाहे न कर सकें लेकिन अंदरुनी बदनज्मी की हालत में उनसे यह उम्मीद की जा सकती है कि जो ट्रेनिंग उन्होंने ली है उस पर अमल करते हुए अपने मासूम शहरियों की सुरक्षा करें। मेरे कहने का मतलब यह है कि हर सरकार का यह फर्ज है कि जैसे भी हो, अपने शहरियों की सुरक्षा करे। अपने हाकिमों के इस नजरिये को कोई भारतीय मानने को तैयार न होगा कि उसका काम केवल विदेशी हमलावरों से अपने शहरियों को ही बचाना है। हमारे हाकिमों ने जो नजरिया कायम कर रखा है वह उस हालत में तो काबिले कबूल हो सकता है जब उसके पास काफी से ज्यादा संख्या में जवान न हों या हमलावरों के मुकाबले के लिए हथियार न हों। मौजूदा हालात में दोनों बातें गलत हैं। भारत की 13 लाख की फौज बाखूबी विदेशी हमलावरों का डटकर मुकाबला कर सकती है और अगर जरूरत हो तो यही जवान अपने दूसरे साथियों के साथ मिलकर देश के मामूली लोगों की भी रक्षा कर सकते हैं। मैं समझता हूं कि यह देश की बदनसीबी है कि हमारे हाकिमों ने यह नजरिया कायम कर रखा है कि हमारी फौज की काम केवल देश को विदेशी हमलावरों से ही बचाना रह गया है और अगर आप अपनी आंखें साफ करके देखें तो आपको कई ऐसी मिसालें मिल जाएंगी जब घरेलू झगड़ों से अवाम को बचाने के लिए भारत सरकार ने महसूस किया है कि पुलिस शहरियों की पूरी सुरक्षा नहीं कर सकी इसलिए फौज को बुला लिया जाए। समझ में नहीं आ रहा कि किस तरह हमारे गृहमंत्री ने यह कह दिया कि देश की फौज देश के हमलावरों के खिलाफ इस्तेमाल नहीं की जा सकती और यह काम पुलिस का है। ऐसी हालत में गृहमंत्री से पूछा जाएगा कि क्या आप अपने रक्षामंत्री से यह भी न कहेंगे कि वह विदेशी हमलावरों से अपने शहरियों की सुरक्षा करे, क्योंकि गृहमंत्री जैसे जिम्मेदार व्यक्ति ने यह फतवा दिया है कि भारतीय फौज का काम भारतीय हमलावरों से भारतीयों को बचाना नहीं है। अमर वाकया यह है कि आज तक यह जानते हुए भी कि माओवादियों को हमारी पुलिस नकारा नहीं कर सकती, हमारे हाकिमों को फौज को गरीब शहरियों की रक्षा के लिए इस्तेमाल न करने का फैसला कर रखा है। इस बात से लाजिमी तौर पर अवाम में बेचैनी फैली हुई है और जिस तरीके पर यह माओवादी एक के दूसरा हमला कर रहे हैं इससे यही  साबित होता है कि यह माओवादी यह समझते हैं कि भारतीय फौजें उनके खिलाफ इस्तेमाल नहीं की जाएंगी और जहां तक पुलिस का संबंध है वह उन्हें बचा सकती है तो बचाए वरना उनका खुदा ही हाफिज है।  

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