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दुनिया झुकती है, झुकाने वाला चाहिए!

👤 | Updated on:4 Jun 2010 3:23 PM GMT
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यह कहावत कई बार सुनी गई है। लेकिन इतनी अहमियत आज की एक घटना से हुई है उतनी पहले कभी न थी। मेरा इशारा कोलकाता के कारपोरेशन के चुनाव के नतीजों की तरफ है। पिछले 25-26 वर्षों से बंगाल पर कम्युनिस्टों उर्प माओवादियों की हुकूमत चल रही थी और आम यह ख्याल होता था कि यह हुकूमत गरीबों और खासकर किसानों के हक में अमल करती है। इसलिए उसके अपदस्थ होने की कोई वजह नहीं। लेकिन जब दूसरे कम्युनिस्ट देशों की तरफ देखते थे तो यह नजर आता था कि वहां भी वर्षों तक हुकूमत करने के बाद कम्युनिस्ट होने का दावा करने वाले बुरी तरह पछाड़ दिए गए और कुछ ऐसी ही बात कोलकाता में भी हुई है। कहने को तो यह अच्छा नहीं लगे लेकिन बंगाल में कम्युनिस्टों के सबसे बड़े नेता श्री ज्योति बसु का आज से कुछ दिन पहले निधन हो जाना एक तरह से उनकी हालत पर रहम करना है। जरा अन्दाजा कीजिए कि जिस व्यक्ति ने खुद और उसकी पार्टी ने 25 वर्ष तक एक इलाके पर हुकूमत की, उसकी ऐसी दुर्दशा हुई है कि उसे केवल 33 सीटें मिली हैं और उसके मुकाबले में श्रीमती ममता बनर्जी की पार्टी को 95 सीटें मिली हैं। इस तरह पिछले चुनाव के मुकाबले में ममता बनर्जी को 53 सीटें ज्यादा मिली हैं और लेफ्ट फ्रंट को 27 से हाथ धोना पड़ा है और जहां तक कांग्रेस का संबंध है उसके 5 आदमी हारे हैं और सारे हाऊस में 10 मेम्बर रह गए हैं। इसके बाद सवाल उठता है कि आने वाले कुछ दिनों में विधानसभा के जो चुनाव होने हैं उसमें क्या होगा। खासकर जो कुछ हुआ है उसको अगर ध्यान में रखें तो फिर यही कहा जा सकता है कि आने वाले चुनाव में कम्युनिस्टों का इससे भी बुरा हाल होगा। अब बजातौर पर यह सवाल किया जा रहा है कि आगे क्या होगा। क्या इस वाकया से बंगाल के कम्युनिस्ट कोई सबक लेंगे या अपनी पुरानी डगर पर चलते जाएंगे। मेरे ख्याल में उनकी जो दुर्दशा हुई है उसकी वजह सिर्प यह है कि वे लोग इतने वर्षों तक हुकूमत करने के बाद यह भूल गए कि वह किन लोगों के वोटों पर आज से पहले कामयाब होते थे। हक तो यह है कि जिस तरीके पर हमारी बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार की दुर्दशा हुई है वह दुनिया के दूसरे देशों में भी होती रही है वरना कोई सोच सकता था कि जो हुकूमतें दर्दनारायण के नाम पर अमल करने का दावा करें उनके लीडरों को अवाम चुन-चुनकर शिकस्त दे और इसलिए कि जो दावा करके वह कामयाब होते थे उन्हें भूल गए हैं और अब सरमायादारों की तरह अमल करने लग गए हैं। इस सिलसिले में यह बात भी कही जाएगी कि कम्युनिस्टों के खिलाफ जनता की भावनाएं पिछले दिनों से बढ़ रही हैं और ऐसा नजर आता है कि उन्हेंने इस बात की कोई परवाह नहीं की कि जनता इनके बारे में क्या सोचती है। वह यही समझते रहे कि प्राथमिक दौर में उन्होंने अवाम और खासकर किसानों के लिए जो कुछ किया वो दुनिया के आखिर तक उन्हें कामयाब करती रहेगी। लेकिन सियासत में ऐसी बातें नहीं देखी गईं। सियासत में तो रोजमर्रा के वाकयात और आपके अमल से नतीजा निकाला जाता है। हैरानी तो इस बात की है कि बंगाल में कम्युनिस्टों का वकार उनका एहतराम और उनकी शोहरत धीरे-धीरे कम होती जा रही थी। लेकिन उन्होंने ऐसा क्यों किया, यह जानने की कोई जरूरत नहीं समझी। यह लोग उसी ख्याल में बैठे रहे कि उन्होंने किसी दिन किसानों के लिए कितना कुछ किया था और आज वह फिर अगर उनके हित को नजरंदाज करके सरमायादारों की जिन्दगी बसर करना शुरू हो जाएं तो उस हालत में भी लोग उनका साथ देंगे ऐसा हो सकता है, न हुआ। अब कम्युनिस्टों की नींद हराम हुई है और उन्हें यह खौफ खाए जा रहा है कि जो कुछ बंगाल की राजधानी कोलकाता के निगम चुनाव में हुआ है वही विधानसभा के चुनाव में न हो। जहां तक श्रीमती ममता बनर्जी का संबंध है वो यह समझ रही हैं कि विधानसभा चुनाव में भी वही बात होगी जो कारपोरेशन में हुई है। इसलिए वह अपनी कोशिशों में किसी किस्म की ढील आने नहीं दे रहीं। इस वक्त आप केंद्रीय सरकार की रेलमंत्री हैं और अपने पद के अधिकारों का फायदा उठाते हुए रेलवे के सुधार और रेलवे का इस्तेमाल करने वाले लोगों की सहूलियतों पर ज्यादा से ज्यादा ध्यान दे रही हैं। जिस तरीके पर आपने अपने पद के लिए अवाम की भलाई के इकदाम किए हैं उनको देखते हुए यही कहा जा सकता है कि आने वाले छह माह में भी बंगाल की जनता बनर्जी का साथ देगी बजाय कम्युनिस्टों या कांग्रेस के। इस समय ममता बनर्जी कांग्रेस सरकार की मेम्बर हैं और यह एक समझौते के तहत हुआ। नतीजा इसका यह है कि आने वाले दिनों में जो विधानसभा चुनाव होने हैं, उनमें विभिन्न पार्टियों का क्या हश्र होगा। साफ है कि आपकी पार्टी के अलावा कम्युनिस्ट और कांग्रेस भी मैदान में होंगे। कम्युनिस्टों का बेताब होना काबिलेफहम है, लेकिन सबसे ज्यादा तशवीश कांग्रेसियों को हो रही है। वह यह समझते हैं कि पार्टी का सारे देश में अवाम उनका साथ दे रहे हैं। लेकिन कोलकाता के चुनाव ने उन्हें यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि कहीं उनकी भी हालत कम्युनिस्टों जैसी न हो जाए। हक तो यह है कि ममता बनर्जी ने कांग्रेस मंत्रालय में शामिल होकर अपनी पार्टी को बैंक में जमा नहीं कर रखा था बल्कि उसका पूरा-पूरा फायदा उठाया और यह बात कांग्रेसियों को काफी हद तक परेशान कर रही है और वह सोचने पर मजबूर हो रहे हैं कि किसी तरह ममता के असरो-रसूख से बचकर उनकी पार्टी बरसरेइकतदार आ जाए। इसके कोई इमकानात नजर नहीं आते, क्योंकि आज भी ममता बनर्जी ने कांग्रेस के आगे हथियार नहीं डाले। बेशक वह मंत्रिमंडल की सदस्य हैं । लेकिन मंत्रालय में शामिल होने का फायदा वो अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए करती रही हैं और नजर यही आता है कि जो कामयाबी उन्हें कारपोरेशन के चुनाव में हुई है उसका फायदा उठाते हुए वो आने वाले चुनाव में भी आजादाना तौर पर लड़ेंगी और मानना पड़ता है कि आज जो माहौल कोलकाता का बना हुआ है उसको देखते हुए शायद ही व्यक्ति यह मानने को तैयार न हो कि अगले छह-सात महीनों में ममता कांग्रेसियों और माओवादियों पर पूरी तरह छा जाएंगी। ममता के रवैये से यह साफ नजर आता है कि वह हर हालत में अपनी पार्टी को कामयाब करने की कोशिश करेंगी और आज तक जो कुछ हुआ है उसको देखकर अगर कोई अन्दाजा किया जा सकता है तो वो यही है कि विधानसभा चुनाव में ममता की तृणमूल कांग्रेस की फतेह होगी और कांग्रेस व कम्युनिस्ट मुंह देखते रह जाएंगे।  

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