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लोकतंत्र का नया तेवर या खालिस तमाशा

👤 | Updated on:6 Jun 2010 4:36 PM GMT
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नितीश कटारा हत्याकांड, पिदर्शिनी मट्टू बलात्कार व हत्याकांड, जेसिका लाल हत्याकांड, रुचिका गेहरोत्राा आत्महत्या कांड, आरुषि  मर्डर मिस्ट्री और मुंबई में हुआ 26/11 का पिफदायीन अटैक। आखिर इन सभी मामलों में साझा या एक जैसा क्या है? इन सभी मामलों में कई समानताएं हैं। ये सारे झकझोर देने वाले आपराध्कि, आतंककारी और षड़यंत्रााr मामले हैं। ये वो मामले हैं जिनकी गूंज मीडिया के जरिये देश के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक सुनाई पड़ी। लेकिन इन सभी मामलों में एक और समानता है जो शायद हमारे लोकतंत्रा के एक नए आयाम की भी सूचक है। यह समानता है इन सभी मामलों में मशहूर सेलिब्रिटीज की अगुवाई में हुए बहुचर्चित कैंडिल मार्च। राजधनी दिल्ली में इंडिया गेट और मुंबई में गेटवे ऑपफ इंडिया तक  मशहूर सेलिब्रिटीज की अगुवाई में इन तमाम मामलों पर न्याय की मांग करते हुए सैंकड़ों लोग हाथों में जलती मोमबत्तियां लेकर मार्च किया। अखबारों टीवी चैनलों में इनके इस मार्च की खूब ध्tम रही। अखबारों में बड़ी-बड़ी तस्वीरें छपीं जिसमें आक्रोश और एकजुटता का पदर्शन दिखा। बौ(क गलियारे में इन कैंडिल मार्च ने नई तरह की बहस खड़ी की और इन मामलों को देश के घर-घर तक पहुंचाया जिससे न सिपर्फ आम लोगों तक इन मामलों की जानकारी पहुंची बल्कि पूरे देश के लोगों की संवेदना और सहानुभूति भी इनके साथ जुड़ी और इस तरह अदालतों में चल रहे मामलों पर न्यायाधशों के लिए दबाव बना। अगर ऐसा न होता तो हाईकोर्ट द्वारा बरी कर दिये गये पियदर्शिनी मट्टू मामले के दोषी आरोपी को दोबारा गिरफ्रतार करके जेल न भेजा गया होता। मनु शर्मा को सजा न होती और नितीश कटारा के हत्यारों को जमानत मिल गई होती। हालांकि यह नहीं कहा जा सकता कि इन पदर्शनों ने न्यायाधशों को पभावित किया लेकिन देश के सेलिब्रिटीज और मध्यवर्ग के घर से बाहर निकलकर आने और नपफासत भरे कैंडिल मार्च का पतीकात्मक असर कम से कम मीडिया में तो जबरदस्त दिखा। याद करें इंडिया गेट की वह भावभीनी शाम जब जेसिका लाल की बहन शबरीना लाल के नेतृत्व में दिल्ली से लेकर मुंबई तक की सेलिब्रिटीज हाथों में मोमबत्तियां लिये एक शाम को रोशनी से भर दिया जो शायद टीवी मीडिया की एक बड़ी पहल का नतीजा थी। रुचिका गेहरोत्राा ने लगभग डेढ़ दशक पहले चंडीगढ़ में एक पुलिस आपफीसर शंभूनाथ पताप सिंह रा"ाwर की ज्यादती के चलते आत्महत्या के लिए मजबूर हुई थी। पुलिस ने मामले में कुछ इस तरह से लीपापोती की थी कि अदालतें न चाहते हुए भी रा"ाwर को बरी करने या उसे कम से कम गुनहगार मानने को बाध्य थीं। लेकिन मीडिया की मुहिम और दिल्ली, मुंबई व बंगलुरू की तरह चंडीगढ़ के पेज-3 सेलिब्रिटीज की अगुवाई में हुआ कैंडिल मार्च ने न सिपर्फ इस पूरे मामले को जिंदा रखा बल्कि सबूतों की कमजोरी के बावजूद न्याय की आत्मा को मरने नहीं दिया। आज एसपीएस रा"ाwर जेल में है। भारत में यूं तो 1988 के बाद से, जब पहली बार कश्मीर में गंभीर विदेशी आतंकवाद के निशान दिखे थे, तब से 2009 तक कोई 4000 से ज्यादा ऐसी आतंकवादी वारदातें हो चुकी हैं जिनमें अब तक हजारों लोगों की जान गई है और अरबों रुपयों की हानि हुई है। लेकिन आतंकवाद को लेकर शायद ही पहले कभी इस कदर आक्रोश, एकजुटता और विभिन्न धर्मिक समुदाय के लोगों के बीच ऐसा साझा राष्ट्रवाद दिखा हो जैसा मुंबई पर 26/11 के आत्मघाती हमले के बाद मुंबई वासियों द्वारा गेटवे ऑपफ इंडिया पर किये गये कैंडिल मार्च के दौरान दिखा। जहां तक नजर जा सकती थी, जलती हुई मोमबत्तियों की लौ और हो"ाsं से यही गर्जना सुनाई पड़ रही थी `वी वांट जस्टिस'। हमेशा हत्या या आतंक की वारदात के बाद ही कैंडिल मार्च या मोमबत्ती जुलूस दिखा हो, ऐसा नहीं है। बाघा बॉर्डर में हर साल 31 दिसंबर की रात भारत और पाकिस्तान के बीच मैत्रााrपूर्ण सम्बंधें की कामना की अलख लगाने वाले लोगों का भी एक जुलूस देखने को मिलता है जो "ाrक मध्यरात्रा में सरहद पर रोशनी करके यह संदेश देने की कोशिश करता है कि दोनों देशों को आपस में मित्रातापूर्वक रहना चाहिए। इसी तरह 6 दिसंबर के दिन यानी जिस दिन सदियों पुरानी बाबरी मस्जिद को कुछ हिंदू उन्मादियों ने तोड़ दिया था, उस दिन की याद में भी हर साल 6 दिसंबर को लखनउफ, दिल्ली, मुंबई समेत देश के कई दूसरे शहरों और धर्मिक समुदायों की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रााsं में हिंदू और मुसलमानों के बीच एकता को पदर्शित करने वाले ऐसे मोमबत्ती जुलूस निलकते हैं। धरे-धीरे कैंडिल मार्च भारतीय लोकतांत्राकता और अभिव्यक्ति की आजादी का एक नया आयाम बनकर उभरा है। इसलिए बड़े शहरों मे घिनौनी वारदातों, सांपदायिक झगड़ों आदि को सांपदायिक भाईचारे शब्दों को गोल मटोल ढंग से वापिस लिया था और यह स्वीकार किया था कि उनका ऐसा कोई इरादा नहीं था। मगर सवाल है क्या वाकई कैंडिल मार्च भारतीय लोकतंत्रा की नई सुबह, अभिव्यक्ति की आजादी का एक नया आयाम है? क्या वाकई इस तरह के पदर्शनों में वह नैतिक और राजनैतिक ताकत होती है जो राजनेताओं से लेकर पुलिस पशासन तक को इस बात के लिए बाध्य कर सके कि वह अपनी ड्यूटी ज्यादा मुस्तैदी और राष्ट्रवादी नजरिये से निभाएं क्या ऐसे विरोध् पदर्शन वाकई भारत के लोकतंत्रा को मजबूत बनाते हैं, उसे जनोन्मुखी बनाते हैं वगैरह, वगैरह। बड़े दुख की बात है कि पेज-3 की स्टाइलिश सेलिब्रिटीज की अगुवाई में होने वाले इस तरह के विरोध् पदर्शन मीडिया का ध्यान तो जबरदस्त ढंग से आकर्षित करते है, इंटेलेक्चुअल भी इससे पभावित होते हैं और अपनी कम से कम वैचारिक गोलबंदी भी करते दिखते हैं मगर जहां तक मोमबत्ती जुलूसों का देश की लोकतांत्राकता को मजबूत करने में योगदान का सवाल है तो ऐसा कोई बहुआयामी योगदान तो नहीं दिख रहा जो हमारे समूचे लोकतांत्राक चरित्रा को आमूलचूल ढंग से बदल रहा हो। इसमें कोई दो राय नहीं है कि चूंकि इस तरह के मोमबत्ती जूलूसों में बड़े शहरों की वो हस्तियां शामिल होती हैं जो सपफल हैं, महत्वकांक्षी हैं और लोकपियता के शिखर पर भी होती हैं। इसलिए ऐसे जुलूसों को मीडिया में खूब मौके मिलते हैं जिस कारण मीडिया ऐसा जनमत बनाने में जुट जाता है जिससे लगता है कि शायद इस वर्ग की यह विरोध्शैली, हमारी लोकतांत्राक बुनियादों को नई खाद मुहाया करा रही है। लेकिन अगर इस पूरे कदमताल की एक बड़ी तस्वीर देखें तो यह सिर्पफ कुछ लोगों की हैसियत और लोकपियता का क्रियाकलाप भर होता है। इसकी पूरी ताकत, इसमें मीडिया अटेंशन की खूबी होना है। कुल मिलाकर कैंडिल मार्च चाहे जितने भव्य, सभ्य और नपफासत से भरे हों लेकिन उनका देश के राजनीतिक चरित्रा में कोई निर्णायक असर नहीं दिख रहा। शायद इसलिए क्योंकि इन पदर्शनों के सरोकार सीमित होते हैं जबकि इनकी दृश्यता बहुत ज्यादा होती हैऋ क्योंकि मीडिया इन पर जरूरत से ज्यादा मेहरबान रहता है। आखिर ऐसा होता क्यों है? भले कुछ बातें बहुत स्पष्टता या सापफगोई से न की जाती हों लेकिन हकीकत यही है कि हर वर्ग, अपने वर्गीय हितों को लेकर हमेशा पतिब( रहता है यही कारण है कि कैंडिल मार्च जैसे लोकतांत्राक पदर्शन व विरोध् की पक्रिया सिपर्फ उन्हीं मसलों व लोगों के हितों को उ"ाने के पति सजग रहती है जो उसके वर्ग से रिश्ता रखते हों। अगर सेलिब्रिटीज देश में लोकतांत्राक जवाबदेही और न्यायिक पक्रिया को इतना ही उदार व जैनुइन बनाने की पक्षध्र होतीं तो हाल के सालों में घटी हृदय विदारक घटनाओं के लिए भी कैंडिल मार्च हुए होते मसलन महाराष्ट्र में पिछले दस साल के भीतर पांच हजार से ज्यादा किसानों ने इस हताशा के चलते आत्महत्या कर लिया कि खेती उनके सपने पूरे करने में तो असपफल रही ही उनके लिए जीवन को भी नरक बना दिया था। कर्ज में डूबे किसानों ने यह देखा कि न तो सरकार और न ही पकृति उनके पति किसी तरह की सहानुभूति रखती है तो उन्होंने मौत का दामन थाम लेना ही बेहतर समझा। मगर हैरानी होती है कि इन किसानों के लिए देश के किसी भी शहर में पतीक के तौर पर भी कोई कैंडिल मार्च नहीं निकला। न तो अंग्रेजी बोलने वाले बु(जीवी इन गैर अंग्रेजी भाषी लोगों के लिए इंडिया गेट में एकत्रा हुए और न ही गेटवे ऑपफ इंडिया में अपने हाथों में थामी मोमबत्तियें से रोशनी पफैलाई। नक्सली हिंसा अब कानून व्यवस्था के लिए ही नहीं समाज व्यवस्था के लिए भी नासूर बन चुकी हैऋ लेकिन किसी नक्सली हमले के विरोध् में भी कोई कैंडिल मार्च आयोजित नहीं किया गया। सिपर्फ नक्सल विरोध् के लिए ही नहीं, नक्सलियों के नाम पर आम लोगों के दमन के विरु( भी कभी कोई कैंडिल मार्च आयोजित नहीं हुआ। आखिर क्यों? माना कि मुंबई के लियोपोल्ड रेस्तरां, ताज हेरिटेज, जैसे होटलों में हताहत होने वाले लोगों की बहुत कीमत थी, उनके पति देश के लोगों को एकजुटता दिखाना ही चाहिए था। लेकिन हजारों किसानों की हताशाभरी आत्महत्या क्या इतना भी हक नहीं रखती कि उसे भी तथाकथित बु(जीवियों की सहानुभूति हासिल हो? आम गरीब किसान, मजदूर या लाचारगी और बेचारगी से भरा हिंदुस्तानी ऐसे लोगों के लिए कोई मायने नहीं रखता जो लोग, लोगों की सहानुभूति में विरोध् पदर्शन करते हैं और अपने पदर्शनों के जरिये उन स्थितियों में बदलाव लाने की कोशिश करते हैं। दरअसल कैंडिल मार्च में शामिल रहने वाले लोग एक खास तबके से ही आते हैं जाहिर है उनके सरोकार सीमित होते हैं। इसलिए इन लोगों की संवेदनाएं भी कुछ सीमित सरोकारों के लिए ही देखी जाती हैं। कैंडिल मार्च कोई बुरी बात नहीं है और न ही इसकी संवेदना। लेकिन कैंडिल मार्च भारतीय लोकतंत्रा की ध्ड़कन शायद इसलिए नहीं बन सकताऋ क्योंकि इसके सरोकार सीमित हैं और इसके क्रियाकलाप एक खास तबके तक ही सीमित रह सकते हैं जो इंटरनेट सैवी है, जो नेटवर्किंग साइटों में गोलबंदी करता है और आम हिंदुस्तानियों के समानांतर एक भिन्न हिंदुस्तान का बाशिंदा होता है। ऐसे में यह मोमबत्ती जुलूस उस बड़े हिंदुस्तान की धड़कन तो बन ही नहीं सकते जिसके 70 पफीसदी लोग यह नहीं जानते कि इंटरनेट क्या है और कैसे ये जादुई दुनिया उनकी जिंदगी बदल सकती है? यही कारण है कि इंटरनेट में वह तमाम चीजें पड़ी रहती हैं और आम हिंदुस्तानियों में हलचल भी नहीं होती, जिनकी अखबारी या राजनीतिक मौजूदगी शायद हंगामा खड़ा कर दे। अगर मोमबत्ती जुलूसों को सही मायनों में भारतीय लोकतंत्रा की धड़कन बनना है तो इसको अपने सरोकार व्यापक करने होंगे। अगर सिपर्फ एक खास चमड़ी और बोली वाले लोगों तक ही इस नपफासत भरे विरोध् की आंच और संवेदना पहुंचती रही तो उसका कोई अर्थ नहीं रहेगाऋ क्योंकि व्यापक भारत वैसा नहीं है जैसा कि यह सीमित भारत दावा कर रहा है। पंजाबी कभी पाश के शब्दों में भारत के मायने आज भी खेतों में दायर हैं जब तक कैंडिल मार्च खेत-खलिहान तक नहीं पहुंचेंगे, जब तक यह उस गैर पढ़े-लिखे भदेस हिंदुस्तानी की पीड़ा और वेदना को संबोध्ति नहीं करेंगे, तब तक कैंडिल मार्च जम्हूरियत का कोई नया तेवर नहीं माने जाएंगे बल्कि एक सीमित वर्ग की चोंचलेबाजी में ही चिन्हित होंगे बावजूद इसके कि न ही इसकी पक्रिया और न ही इसके परिणाम लोकतंत्रा के पतिगामी हैं। मजे की बात यह है कि यह बात सिपर्फ भारत पर ही लागू नहीं होती कमोवेश यह सच पूरी दुनिया पर लागू होता है। पर्यावरण और ध्रती बचाने को लेकर भले कनाडा से लेकर कंबोडिया तक, पर्यावरणवादियों, सामाजिक कार्यकर्ताआंs और सेलिब्रिटीज ने आसमान सिर पर उ"ा रखा हो। लेकिन ध्रती के बिगड़ते पर्यावरण पर जरा भी पफर्क नहीं पड़ा। क्योंकि यह आंदोलन यह आह्वान उन लोगों के थे जो व्यापाक समाज नहीं बनाते बल्कि आह्वानों का कारोबार करते हैं। नतीजतन विरोध् भी होते रहे, पदर्शन भी होते रहे और लगातार पर्यावरण भी बिगड़ता रहा। "ाrक उसी तरह जैसे 90 के दशक में जूनियर बुश ने जब सद्दाम हुसैन पर हमला किया तो लंदन से लेकर पेरिस और टोकियो से लेकर वाशिंगटन तक जबरदस्त विरोध् पदर्शन किये गए, तथाकथित सभ्य अंग्रेजों ने मोमबत्तियां जलाकर ईराक के लोगों के पति अपनी संवेदना, सहानुभूति व एकजुटता भी दर्शायी। मगर इनका यह विरोध् एक रस्मी विरोध् बनकर इसलिए रह गयाऋ क्योंकि इनके विरोध् का कोई नतीजा नहीं निकला। 20 लाख लोगों ने लंदन में खाड़ी यु( के विरु( पदर्शन किया, मोमबत्तियां जलाइं

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