भोपाल एक त्रासदी आज भी जारी है
कुछ रंग लहू अपना दिखाए तो दिखाए मुन्सिपफ मेरे कातिल को बचाने में लगा है जमील मज़हर सियानवी के इस शेर का याद आना स्वभाविक है। विश्व की भयंकरतम औद्योगिक दुर्घटना भोपाल गैस त्राासदी पर जो ट्रायल कोर्ट का पफैसला आया है, उसे देखने के बाद पहली नजर में यही लगता है कि मुन्सिपफ ;मेजिस्ट्रेटद्ध `कातिलों' ;यूनियन कार्बाइड के पदाध्कारियोंद्ध को बचाने की कोशिश कर रहा है। लेकिन यह सही नहीं है। मुख्य न्यायिक दंडाध्कारी मोहन पी तिवारी के समक्ष जो परिस्थितिजन्य साक्ष्य रखे गए थे उनकी रोशनी में वही पफैसला दिया जा सकता था जो बीती 7 जून को भोपाल में दिया गया। निर्णय कानून पर आधरित है जिसमें आरोपियों के इरादे को पहचानने की कोशिश की गई न कि हादसे की वजह से हुई मानव त्राासदी को। लेकिन इस तथ्य से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि पीड़ितों को जो देर से न्याय मिला है वह वास्तव में अन्याय है। एक पुरानी कहावत है कि देर से मिला न्याय भी अन्याय ही होता है। इसमें शक नहीं है कि गैस पीड़ित वर्षों से इंसापफ के इंतजार में हैं, लेकिन उन्हें एक काले दिन के बाद दूसरा काला दिन देखने को मिल रहा है। गौरतलब है कि यूनियन कार्बाइड कम्पनी ;यूसीसीद्ध की लापरवाही की वजह से 1984 में 2/3 दिसम्बर की रात को 40 टन मिथाइल आइसोसाइनेट गैस लीक हो गई थी जिसकी वजह से 15,274 लोग मारे गए और 5.74 लाख लोग गम्भीर रूप से पभावित हुए। इतनी जबरदस्त औद्योगिक दुर्घटना के संदर्भ में अदालती पफैसला 25 साल 6 महीने बाद आया। इस जघन्य अपराध् के लिए अदालत ने 8 आरोपियों को धरा 304ए, 336, 337 और 338 के तहत दोषी पाया और उन्हें दो-दो वर्ष की कैद और एक-एक लाख रुपये की जुर्माने की सजा सुनाई। इसके अतिरिक्त यूनियन कार्बाइड कम्पनी पर 5 लाख रुपये का जुर्माना लगाया और कम्पनी के अमरीका स्थित मुख्यालय को यूसीसी के तत्कालीन अध्यक्ष वारन एंडरसन को भारत लाने और उन्हें अदालत में पेश करने के आदेश दिए। गौरतलब है कि 90 वर्षीय एंडरसन आरोपियों की सूची में शामिल नहीं है और वह न्यूयॉर्क के लांग आइलैंड स्थित अपने आलीशान बंगले में अपनी पत्नी लीलियन के साथ रहते हैं। वे न किसी से सामाजिक संपर्क रखते हैं और न ही मीडिया से बात करते हैं। यह भी अपने आपमें एक त्राासदी है कि जिस व्यक्ति को मुख्य आरोपी होना चाहिए था वह आरोपियों की सूची में ही नहीं है। त्राासदी की गम्भीरता को देखते हुए ये सजा बहुत कम पतीत होती है। लेकिन आरोपियों पर जो धराएं लगाई गईं उनके तहत यह अध्कितम सजा है। मसलन आईपीसी की धरा 304ए के तहत दो साल की कैद और एक लाख रुपये जुर्माना का पावधन है। धरा 336 के तहत 3 माह के कैद और 250 रुपये जुर्माना है। धरा 337 के तहत 6 माह की कैद और 500 रुपये जुर्माना है। इसी तरह धरा 338 के तहत दो वर्ष की कैद और 1000 रुपये जुर्माना का पावधन है। ऐसे में अगर केशव महिंदा ;यूसीसी अध्यक्षद्ध, विजय गोखले ;उपाध्यक्षद्ध, किशोर कामदार ;उपाध्यक्षद्ध, जे मुकुंद ;वर्क्स मैनेजरद्ध, एस पी राय चौध्री ;प्लांट सुपीटेंडेंटद्ध, के वी शेट्टी ;प्लांट सुपरवाइजरद्ध और एस आई कुरेशी ;प्लांट सुपरवाइजरद्ध को अगर दो वर्ष की कैद और एक लाख रुपये जुर्माना की सजा दी गई है तो यही कहा जा सकता है मुख्य न्यायिक मेजिस्ट्रेट कानूनी सीमा से बाहर नहीं जा सकते थे। ध्यान रहे कि आ"वे आरोपी बी राय चौध्री का निध्न हो चुका है। दरअसल, इस कम सजा के लिए कापफी हद तक सुपीम कोर्ट जिम्मेदार है। सितम्बर 13, 1996 को सुपीम कोर्ट ने सीबीआई के वकील की इस अर्जी को खारिज कर दिया था कि आरोपियों पर आईपीसी की धरा 304;2द्ध के तहत मुकदमा चलाया जाए। इस धरा में अध्कितम 10 वर्ष की कैद का पावधन है। बावजूद इसके कि सुपीम कोर्ट को बताया गया था कि आरोपी अच्छी तरह से जानते थे कि भोपाल स्थित प्लांट, जो उनकी निगरानी में था, में सुरक्षा के पर्याप्त इंतजाम नहीं थे, पिफर भी उन पर वह धराएं नहीं लगाई गईं जो लगनी चाहिए थीं। जांच से मालूम हुआ है कि पबंध्कों की लापरवाही की वजह से गैस लीक हुई। मिथाइल आइसोसाइनेट गैस को दबाव में 5 डिग्री सेंटीग्रेट से कम तापमान में रखा जाता हैऋ लेकिन पबंध्कों ने जून 1984 में ही पैसा बचाने के लिए रेऱीजरेशन सिस्टम को बंद कर दिया था। टैंक और गैस रेगुलेट करने के वॉल्व भी खराब थे। इसके अलावा सुरक्षा के कोई इंतजाम नहीं थे और न ही पफैक्टरी के आसपास के लोगों को सचेत करने का कोई सिस्टम मौजूद था। इसलिए यह कहना गलत न होगा कि कमजोर केस की वजह से गैस पीड़ितों को इंसापफ नहीं मिल सका। हकीकत यह है कि पीड़ितों के लिए दिसम्बर 1984 में जो काली रात शुरू हुई थी वह अब तक जारी है। उन्हें हर बार लगता है कि सुबह होगीऋ लेकिन रात के बाद पिफर रात आ जाती है। पहली रात तो वही थी जब यूसीसी से जहरीली गैस लीक हुई। इसके बाद कम्पनी के सीईओ वारन एंडरसन को भारत से भागने का मौका दे दिया गया। ध्यान रहे कि मध्य पदेश पुलिस ने 7 दिसम्बर 1984 को एंडरसन को गिरफ्रतार किया थाऋ लेकिन उसे पफौरन ही जमानत पर छोड़ दिया गया और वह वापस अमरीका भाग गया। पफरवरी 1992वे में उसे भगोड़ा घोषित किया गया। लेकिन बावजूद इसके कि उसके खिलापफ कई गिरफ्रतारी के वारंट हैं, उसके पत्यार्पण का सरकार द्वारा कोई विशेष पयास नहीं किया गया। पीड़ितों के लिए एक अन्य काली रात उस समय भी आयी जब भारत सरकार और यूसीसी के बीच मुआवजे को लेकर समझौता हो गया। इस समझौता के तहत कार्बाइड ने बतौर मुआवजा 713 करोड़ रुपये दिए। इसमें से 113 करोड़ रुपये सम्पत्ति या मवेशियों की मौत के नुकसान के रूप में दिये जाने थे और बाकी 600 करोड़ रुपये 3000 मश्तकों के परिजनों और 1 लाख घायलों के बीच वितश्त होने थे। लेकिन मुआवजे की रकम पर आनन-पफानन में पहुंचा गया था क्योंकि मश्तकों की संख्या ताजा अनुमानों के अनुसार 20,000 से अध्कि है और घायल लगभग 6 लाख हैं। इसलिए औसतन एक पीड़ित को 12,410 रुपये ही दो किस्तों में दिए गए हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि गैस पीड़ितों को उतना मुआवजा भी नहीं मिला है जितना कि एक साधरण सड़क दुर्घटना में पीड़ित को हासिल हो जाता है। अपफसोस की बात तो यह है कि गैस पीड़ितों के लिए काली रात के बाद पिफर काली रात का सिलसिला अभी थमा नहीं है। सजा सुनाने के बाद न्यायाधश ने सभी दोषियों को 25-25 हजार रुपये के मुचलके के एवज में जमानत पर तुरंत रिहा कर दिया, यानी जो मामूली सजा सुनाई गई थी वह भी मजाक बनकर रह गई।अब तक ये त्राासदी उद्योग, स्वास्थ्य और पर्यावरण से संबंध्ति थीऋ लेकिन अब यह न्यायिक पक्रिया से भी जुड़ गई है। इसमें इंसापफ उसी सूरत में मिल सकता है जब पीड़ित हार न माने और अपना संघर्ष जारी रखें, और यह सरहानिय बात है कि वे अंत तक लड़ने का जज्बा रखे हुए हैं ताकि 15,274 लोगों का खून अपना रंग दिखा सके। शाहिद ए चौध्री