Home » रविवारीय » आखिर क्यों न कोई अपने मन का पढ़े

आखिर क्यों न कोई अपने मन का पढ़े

👤 | Updated on:13 Jun 2010 3:31 PM GMT
Share Post

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक दिल्ली यूनिवर्सिटी के विभिन्न कॉलेजों में अलग-अलग पा"dयक्रमों पर पवेश पाने के लिए तकरीबन सवा लाख पफॉर्म बिक चुके थे और अगले एक सप्ताह तक लगभग 3 लाख पफॉर्म बिकने की उम्मीद है। तकरीबन 109 विभिन्न पा"dयक्रमों पर औसतन जितने छात्रााsं का एडमीशन हो सकता है, उससे 22-25 गुना या दूसरे शब्दों में कहें 2200 से 2500 पतिशत ज्यादा छात्रा पवेश चाहते हैं। इसका मतलब सापफ-सापफ यह है कि किसी पा"dयक्रम में पवेश चाहने वाले 20 में से 19 या 18 छात्रााsं को निराश होना ही पड़ेगा। हम बहुत होशियारी से इस वंचित होने को अक्षमता कह कर जस्टिपफाई कर सकते हैं। लेकिन क्या वाकई यह महज अक्षमता का सबूत होगा? दरअसल पतियोगिता अपने आपमें एक भ्रामक शब्द है। पतियोगिता हमेशा गुणवत्ता के सापेक्ष नहीं होती। गुणवत्ता या क्वालिटी का आंकलन तब हो सकता है जब हम किसी हासिल ज्ञान पर पतिक्रिया व्यक्त करें। जिस विषय को अभी आपने पढ़ा ही नहीं आखिर उसमें किस बात की पवेश परीक्षा होगी और अगर आप उस विषय की पवेश परीक्षा में पास होते हैं या पफेल होते हैं तो उसका मतलब क्या है? यह महज भ्रम है। 12वीं पास करके आने वाला अगर कोई बच्चा साइकोलॉजी से ऑनर्स की डिग्री लेने के लिए पवेश परीक्षा देता है तो उससे आखिर आप किस विषय पर सवाल करेंगे? क्या उससे आप साइकोलॉजी के सवाल पूछेंगे? जिसे उसे अभी पढ़ना है? अगर उससे साइकोलॉजी के सवाल पूछेंगे और वह पास नहीं हो पाता तो उसे गैर जानकार कहना या पफेल करार देना आपकी मतिबु( का पमाण होगा। अभी उसने जब वह विषय ही नहीं पढ़ा जिसमें वह, पढ़ने के लिए दाखिला चाहता है तो भला उसमें पास कैसे हो सकता है? और अगर किसी दूसरे विषय में सवाल पूछ करके आपने उसे खारिज किया है तो यह भी हास्यास्पद होगाऋ क्योंकि उसे पढ़ना तो साइकोलॉजी है पिफर वह अंग्रेजी या व्यवहारिक विज्ञान अथवा अर्थशास्त्रा में क्यों पारंगत होने का सबूत दे? कुल मिलाकर इंट्रेंस या पवेश परीक्षाएं महज इसलिए होती हैं क्योंकि हमारे यहां जो छात्रा जो कुछ पढ़ना चाहते हैं, उसे पढ़ाने की सुविध नहीं होती। इसे एक अनार, सौ बीमार भी कह सकते हैं। अगर इंग्लिश ऑनर्स के लिए पहले से ही हमने महज 2000 सीटें तैयार की हैं और 20,000 छात्रा इंग्लिश ऑनर्स में डिग्री लेने के इच्छुक हैं तो हमें 18,000 छात्रााsं का यह स्वप्न तोड़ना ही होगा। इसे एक इस उदाहरण से समझिए कि मान लीजिए सिपर्फ 377 आईएएस चाहिए और पफाइनल परीक्षा में 2000 छात्रा उत्तीर्ण हो चुके हैं तो इन छात्रााsं में से 1623 को इंटरव्यू के जरिये नाकारा साबित ही करना है। इसके अलावा कोई चारा ही नहीं है। क्या ऐसी स्थिति में जहां पहले से एक निश्चित संख्या में लोगों को पफेल किया जाना सुनिश्चित हो, इस बात का कोई अर्थ होता है कि इतने लोग पास हुए? दरअसल इतने ही लोग पास नहीं होते, वास्तव में हमें उतने ही लोगों की जरूरत होती है। लब्बोलुआब यह कि शैक्षिक ढांचे की यह बहुत बड़ी खामी है कि छात्रा जो पढ़ना चाहते हैं, वह उन्हें पढ़ने को नहीं मिलता। आप कह सकते हैं कि ऐसा इसलिए होता हैऋ क्योंकि ज्यादातर छात्रा कुछ खास विषय ही पढ़ना चाहते हैं और उन सभी के लिए बुनियादी ढांचा व सुविधएं नहीं होतीं। इसलिए मजबूरन चयन पक्रिया को इस तरह से बनाया गया है कि वह पतिस्पर्ध की बायस बन जाए। आखिर यह किसका दोष है? अगर कुछ खास विषयों को ही तमाम छात्रा पढ़ना चाहते होंगे तो जाहिर है उन विषयों में कुछ खास बात होगी। क्यों न उन सबको उन विषयों को पढ़ने का मौका दिया जाए और दूसरे विषयों की तरपफ छात्रााsं के रुझान के लिए उन विषयों की महत्ता स्थापित की जाए। इसके लिए छात्रााsं के पोत्साहित किया जाना चाहिए। लेकिन हम यह नहीं करते। हम इसके लिए शॉर्टकट अपनाते हैं। हम लोगों को ही काट देते हैं। चीन, जहां से यह पतियोगिता की व्यवस्था शुरू हुई, वहीं के शिक्षा विभाग ने इसे अमानवीय और असामाजिक करार दिया है। कम से कम कुछ क्षेत्रााsं में तो चयन की यह पक्रिया ऐसी ही है। इन्हीं क्षेत्रााsं में से एक विभिन्न मनचाहे विषयों पर पवेश पाने के लिए कड़ी पतियोगिता से गुजरना भी है। जरा रुकिए, आप क्या समझते हैं? आखिर दिल्ली, मुम्बई, बंग्लुरु, पुणे और चंडीगढ़ जैसे शहरों में इतना मारामारी क्यों है? क्यों एक-एक सीट के लिए 25-25, 30-30 दावेदार हैं? यह इसलिए क्योंकि हमारे पूरे देश में शिक्षा की गुणवत्ता और स्थितियां एक जैसी नहीं हैं। कुछ शहर विशेष शिक्षा के हब बन गए हैं। वहां पढ़ने की सुविधएं भी हैं और गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई भी है। जबकि दूसरी तरपफ देश के ज्यादातर हिस्सों में पढ़ाई का स्तर और सर्वसुलभता बहुत निम्न स्तर की है। इसलिए कुछ खास शहरों में ही पवेश परीक्षाओं के लिए उमड़-घुमड़ दिखती है। उत्तर भारत का हर छात्रा दिल्ली पढ़ने आना चाहता है। इसकी दो ही मुख्य वजहे हैं। एक यहां अभी भी गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई है और यहां पढ़ते हुए "ाrक"ाक नौकरियां पाने की सर्वाध्कि उम्मीदें हैं। अगर इन सुविधओं और शिक्षा की गुणवत्ता को हम देश के उन तमाम इलाकों तक विकेंदित कर दें जहां से बड़े पैमाने पर छात्रा दिल्ली की तरपफ भागते हैं तो दिल्ली आने वाले छात्रााsं की संख्या अपने आपमें बहुत कम हो जाएगी और पिफर सही मायनों में देश का एक साथ विकास शुरू होगा। वरना अभी तक तो विकास के नाम पर हिंदुस्तान दो अलग-अलग ध्ड़ों मं बंट चुका है। एक छोटे और चमचमाते ध्ड़े का नाम इंडिया है और दूसरे विशालकाय, बजबजाते ध्ड़े का नाम भारत है। जब तक भारत और इंडिया के बीच यह दूरी बनी रहेगी पतियोगिताओं का पफंदा बिना मतलब छात्रााsं के गले में लटकता रहेगा। देश को आजाद हुए 62 साल हो चुके हैं और तमाम तबकों को उफपर उ"ाने के लिए सरकार लगातार आरक्षण की नीति अपनाए हुए है। मगर अगर तर्क की कसौटी पर कस करके देखें तो हम उस समस्या का समाधान आज तक नहीं निकाल सके जिस समस्या को हमने 1947 में चिन्हित किया था और उसके उन्मूलन के लिए तन, मन, ध्न से जुट गए थे। यह समस्या खत्म हो चुकी होती अगर हम बजाय कुछ वर्गों को सहानुभूतिक आरक्षण देने की बजाय हम उन्हें आगे बढ़ने की व्यवहारिक और वैज्ञानिक सुविधा उपलब्ध् कराते। यह व्यवहारिक और वैज्ञानिक सुविध यही है कि हम देश के हर छात्रा को वह सब कुछ, जो कुछ वह पढ़ना चाहे उसकी सुविध उसे पूरी तरह से दें। इसके बाद वह जो बन सकेगा वह बन सके और अगर कुछ नहीं बन सकता तो यह उसकी निजी अकुशलता या अक्षमता होगी। इसलिए जरूरी है कि हम अपने शिक्षा का बुनियादी ढांचा सुधरें और पवेश परीक्षाओं को रद्द करें। क्योंकि पवेश परीक्षाओं से यह साबित नहीं होता कि पवेश चाहने वाला क्षमतावान है या नहीं।  वह तो हमारी मजबूरियों और ढांचागत अक्षमताओं को छिपाने का जरिया होती हैं। सपना देखिए कि एक दिन वह जरूर आएगा जब, जिसको, जिस विषय में पवेश लेना हो निश्चित रूप से मिल जाएगा बिना किसी पवेश परीक्षा की अडंग़ेबाजी के। यह तभी होगा जब देश को दिल्ली न भागना पड़े। हर जगह दिल्ली मौजूद हो। वीना सुखीजा  

Share it
Top