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अंधेर नगरी चौपट राजा

👤 | Updated on:17 Jun 2010 4:44 PM GMT
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अकेला मैं ही नहीं जो यह सोचता हूं कि हमारी सरकार ने देश की क्या हालत करके रख दी है। दिखावे को सब कानून और जाबते हैं लेकिन अमल के वक्त सब के सब नकारा हो जाते हैं। इसकी ताजा मिसाल उड़ीसा की खानों से है जिसमें से 60 प्रतिशत पिछले 20 वर्षों से बिना किसी अनुमति के खोदी जा रही हैं। कहा जाता है कि कुछ तो 20 वर्षों से भी ज्यादा से  ऐसा कर रहे हैं। वाकिफकार सवाल कर रहे हैं कि क्या यह सम्भव हो सकता है कि गैर कानूनी तौर पर सैकड़ों खानों से माल निकाल लिया जाए और किसी को इल्म भी न हो। इस तरह उन खानों में से पिछले इतने वर्षों से करोड़ों रुपये का माल गैर कानूनी तौर पर निकाला जा रहा है और जिसके लिए कोई जवाबदेह नहीं। जब आप इन सारी बातों की तफ्सील जानना चाहते हों तो आपकी नजर के सामने उड़ीसा आ जाता है। सारे सवालों का जवाब हां में मिलता है। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने एक सेंट्रल इम्पॉवर्ड कमेटी का गठन किया है जिसने देखा है कि उड़ीसा में 341 कामगार खानों में 215 ऐसी हैं जो बिना किसी अनुमति के चल रही हैं अर्थात् 60 प्रतिशत ऐसी खानें हैं जो केंद्रीय सरकार की अनुमति के बिना चल रही हैं। इससे भी ज्यादा चिन्ताजनक बात यह है कि कई खानें इससे भी ज्यादा लम्बे अरसे से चल रही हैं और किसी ने हुक्काम को इसकी खबर नहीं की। ऐसी खानों में 17 वह हैं जो पिछले 20 वर्षों से बिना किसी अनुमति के अपना काम कर रही हैं। इसके अलावा 38 ऐसी खानें हैं जो पिछले 10-15 वर्षों से गैर कानूनी तौर पर चल रही हैं और 65 ऐसी हैं जो पिछले 5-10 वर्षों से बिना किसी अनुमति के चल रही हैं। 80 ऐसी खानें हैं जो 5 वर्ष तक सरकारी अनुमति के बिना चलती रही हैं। इससे भी ज्यादा सनसनीखेज बात यह है कि राज्य सरकारें और हुक्काम यह जानते हैं कि इन खानों से माल निकाला जा रहा है, लेकिन सभी ने सब कुछ देखते हुए आंखें बन्द कर ली हैं। यह है वो तरीका जिस पर यह खानें काम कर रही हैं। अगर कोई खान चलाने वाला अनुमति का नवीनीकरण के लिए प्रमाण पत्र देता है तो समझा जाता है कि उसने अनुमति हासिल कर ली है। यहां तक कि सरकार वाकई उस खान से पेश आती है। यह सब कुछ भारत की कांग्रेसी सरकार के राज में न जाने कब से हो रहा है। जिस जमीन पर यह खानें हैं उनके बारे में अधिकतर अवाम में बेचैनी फैलती रहती है। अवाम का कहना है कि जमीन उनकी है और उन पर जो खानें हैं वो भी उनकी हैं। इसके खिलाफ उसकी सरकार यह कहती है कि जमीन चाहे किसी की हो, खानें सरकार की हैं। इसलिए उसे अधिकार है कि उन्हें जैसे चाहे चलने दे। इसी ख्याल से उनको अनुमति दी जाती है, लेकिन मुश्किल उस वक्त खड़ी हो जाती है जब कोई गैर कानूनी और नागहानी बात हो जाती है और जिन लोगों के पास वो जमीन है वे सरकार से पूछते हैं कि आपका अधिकार क्या है। अमर वाकया यह है कि भारत की सारी सरजमीं हैं तो सरकार की लेकिन दूर-दराज इलाकों में जहां स्थानीय कबायल उन पर वर्षों से काबिज हैं वो यह समझते हैं कि न केवल जमीं ही बल्कि उस पर जो खानें हैं वे भी उनकी हैं और सरकार का कोई अधिकार नहीं कि उन पर कोई कानून लागू करे या वे लोग जो उन्हें चलाते हैं उनसे कुछ मुआवजा ले। इन्हीं दिनों छत्तीसगढ़ में दंतेवाड़ा में जो कुछ हुआ उसका भी ताल्लुक ऐसी ही बात से है। वहां की अवाम यह समझती है कि जमीन उनकी है और जमीन के ऊपर जो कुछ है वो भी उन्हीं का ही है। लेकिन सरकार का कहना है कि यह जमीं सरकारी है जबकि कबायल का कहना है कि अगर इलाके से माओवादियों को निकालना है या हालात को मामूल पर लाना है तो सरकार इस बात का ऐलान करे कि यह जमीन उन लोगों की है जिन्होंने इस पर कब्जा कर रखा है। इस तरह एक अलग नजरिया इन्हीं दिनों जनता के सामने आया है और हमारी सरकार के पास इस मसले का कोई जवाब नहीं है। वर्षों से इन खानों को चलाया जा रहा है लेकिन किसी ने सरकार से यहां की खानों को काम के लायक बनाने के लिए किसी से भी अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं समझी। ऐसी हालत में कोई बताए कि यहां `अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा' की कहावत पूरी तरह लागू होती है या नहीं।  

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