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बंद करो ये `बंद'

👤 | Updated on:14 July 2010 3:49 PM GMT
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  बी ती 5 जुलाई को पेट्रोल, डीजल व गैस के दामों में वृॆि का विरोध करने के लिए विपक्ष ने देशव्यापी हड़ताल का आयोजन किया। जिन राज्यों में एनडीए या वामपंथियों की सरकारें हैं उनमें जनजीवन अस्त-व्यस्त रहा और बाकी राज्यों में बंद का मिलाजुला असर रहा। इस `सफलता' पर विपक्ष ने अपनी पी" थपथपाई और संतोष की सांस ली कि लोकतंत्र में वह भी अपनी भूमिका अदा कर रहा है। लेकिन क्या बंद को सफल कहा जा सकता है? किसी काम की सफलता को मापने का पैमाना ये है कि लक्ष्य को हासिल कर लिया जाए या कम से कम ऐसे हालात पैदा कर दिये जाएं कि लक्ष्य निकट भविष्य में पाप्त हो जाए। इस दृष्टि से देखा जाए तो आर्थिक नुकसान और आम आदमी को परेशान करने के अलावा यह बंद कुछ हासिल न कर सका, क्योंकि डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि पेट्रोल, डीजल व रसोई गैस के दामों में जो वृॆि की गई है उन्हें वापस नहीं लिया जाएगा। दूसरे और स्पष्ट शब्दों में विपक्ष सरकार पर दबाव बनाने में नाकाम रहा, इसलिए बंद को `सफल' कहना भ्रमक होगा। लेकिन इससे बढ़कर सवाल यह है कि क्या आज के युग में बंद विरोध करने का सार्थक व लोकतांत्रिक तरीका है? शायद नहीं। अगर पिछले दो दशक का इतिहास देखा जाए तो विश्व में किसी भी लोकतांत्रिक देश के विपक्ष ने बंद या हड़ताल का आह्वान नहीं किया है। ऐसा इसलिए क्योंकि लोकतंत्र व विपक्ष के पास संसद एक ऐसा मंच है जहां सरकार को घेरा जा सकता है और उस पर कल्याणकारी नीतियां अपनाने के लिए दबाव बनाया जा सकता है। सड़कों पर उतरकर तो सिर्पफ इतना ही हासिल होता है कि विपक्ष अवाम को बता सके कि वह भी मौजूद है और कुछ कर रहा है। हां, यह सही है कि इराक और मध्यपूर्व एशिया में अमरीकी नीतियें को लेकर और विश्व व्यापार संघ की नीतियों और पर्यावरण को लेकर  पदर्शन हुए हैं ताकि विश्व जाग जाए। लेकिन यह पदर्शन जागरुकता अभियान के तौर पर समाजसेवी संग"नें की तरफ से हुए हैं, न कि विपक्षी दलों की ओर से। विपक्षी दलों की हड़ताल का कल्चर केवल भारतीय उप-महाद्वीप में ही है, जहां विरोध सिर्पफ सियासी होता है, न कि नीतिगत। दरअसल, विरोध की अभिव्यक्ति के तौर पर हड़ताल ने अपनी पासंगिकता खो दी है। शायद यही वजह है कि बंद और हड़तालों को लेकर आम जनता का रवाया उदासीनता भरा रहता है। अगर लोग हड़ताल के दौरान घरों में बै"s रहते हैं तो इसका कारण सिर्पफ यह है कि वे शारीरिक हिंसा से अपने आपको बचाए रखना चाहते हैं। जब आम आदमी के नाम पर सियासी पार्टियां हड़ताल करती हैं तो लोग उन्हें शक की निगाह से देखते हैं। यह समझा जाता है कि वे सिर्पफ सत्तारूढ़ दल का विरोध कर रही हैं और उनके पास समस्या का समाधान करने हेतु कोई अर्थपूर्ण विकल्प नहीं है। बीती 5 जुलाई की हड़ताल का आह्वान विभिन्न विचारधाराओं वाली विपक्षी पार्टियों ने महंगाई का विरोध करने के लिए किया था। एकदम से हड़ताल पर जाने की वजह यह रही कि केंद सरकार ने पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ा दिये थे। लेकिन एनडीए जो आज तेल की कीमतों में बढ़ोत्तरी का विरोध कर रही है, उसने ही सबसे पहले कीमतें बढ़ाने की पस्ताव रखा था, जब उसके हाथ में केंद की सत्ता थी। इसलिए अब उसकी जिम्मेदारी बनती है कि वह बताए कि अब उसके नजरिये में बदलाव क्यों आया है, या कम से कम जिन बातों का वह विरोध कर रही है उनका विकल्प ही बताए। यह इसलिए आवश्यक है ताकि एनडीए अवाम की निगाहों में अपनी विश्वसनीयता न खोए। साथ ही वामपंथियों पर भी यह जिम्मेदारी आती है कि वे बताएं कि जिन राज्यों में वे सत्ता में हैं उनमें उन्होंने खाद्य पदार्थों में वृॆि को रोकने के लिए क्या कदम उ"ाए हैं? इसमें शक नहीं है कि महंगाई और तेल की कीमतों में वृॆि को लेकर आम आदमी बहुत चिंतित और परेशान है। इसलिए राजनीतिक पार्टियों विशेषकर विपक्ष की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह इस मुद्दे को सरकार तक लेकर जाए। लेकिन इस तथ्य पर भी मंथन करने की आवश्यकता है कि जबरन आर्थिक गतिविधियों में गतिरोध उत्पन्न करने को जनता पसंद नहीं करती है। अगर विरोध के नाम पर 10 हजार बसें पूफंक दी जाएंगी, रेल रोक दी जाएंगी और उड़ाने रद्द कर दी जाएंगी, तो इससे नुकसान किसका होगा? अनुमान है कि इस बंद के कारण 3 हजार करोड़ रुपये ;सीआईआईद्ध से लेकर 13 हजार करोड़ रुपये ;फिक्कीद्ध का नुकसान हुआ है। यह हानि किसकी है और इसकी भरपाई आखिरकार कौन करेगा? जाहिर है कि "ाrकरा उसी आम आदमी पर पूफटेगा जिसके नाम पर हड़ताल की गई थी। इसका अर्थ यह नहीं है कि बढ़ती महंगाई का विरोध न किया जाए। महंगाई बढ़ रही है, इसमें कोई शक नहीं। खुद सरकारी आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि मई 2009 की तुलना में मई 2010 में खाद्य पदार्थों के थोक दामों में 10.2 पतिशत की वृॆि हुई। इसी अवधि के दौरान पाथमिक खाद्य वस्तुओं की महंगाई 16.5 पतिशत की दर से बढ़ी। दालें 32.4 पतिशत महंगी हुई, अण्डे, मांस और मछली 35 पतिशत महंगी हुई, दूध 21.1 पतिशत की दर से महंगा हुआ, चीनी 28 पतिशत, आटा 16 पतिशत और सब्जियां 7.6 पतिशत की दर से महंगी हुई। इस महंगाई पर विराम लगाने की आवश्यकता है। जाहिर है महंगाई उसी सूरत में कम होगी जब सरकार पर दबाव बनाया जाएगा। लेकिन यह भी तथ्य है कि हड़ताल जो स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान विरोध का एक मजबूत हथियार था, उसने आज अपनी उपयोगिता व पासंगिकता खो दी है। इसलिए विपक्ष को विरोध के ऐसे नए उपाय सोचने चाहिए जिनमें अवाम का भी समर्थन उसे हासिल हो सके। इस बंद से सिर्पफ एक ही नतीजा निकला कि विपक्षी दल यह दिखाना चाहते थे कि वे भी देश की सियासत में मौजूद हैं और सािढय हैं। अगर वे वास्तव में चाहते हैं कि सरकार महंगाई पर लगाम लगाए और तेल की बढ़ी कीमतों को वापिस ले तो उसके लिए सही मंच संसद है। विपक्ष को चाहिए कि एकजुट होकर संसद में न केवल महंगाई का विरोध करे बल्कि महंगाई पर काबू पाने के विकल्प भी सरकार के समक्ष रखे। सरकार पर हर संभव लोकतांत्रिक तरीके से दबाव बनाना चाहिए, चाहे इसके लिए विपक्ष को संसद से सामूहिक इस्तीफा ही क्यों न देना पड़े। बंद दरअसल पतिािढया की राजनीति है और इसलिए बंद को बंद करना चाहिए। आवश्यकता इस बात की है कि समस्याओं का गंभीरता से समाधन तलाशा जाए और ऐसी हरकतों से बचा जाए जो आम आदमी के नाम पर आम आदमी को ही परेशान करती हैं। लोकमित्र    

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