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इंसान अपनी तकदीर खुद गढ़ता है

👤 | Updated on:14 July 2010 3:51 PM GMT
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    दीना     में इस्लामी शासन के दूसरे ख्ा़लीफा हज़रत उमर की अदालत में एक चोर को लाया गया। चोर से जब ये मालूम किया गया कि उसने चोरी क्यों की तो उसका जवाब था कि उसकी किस्मत में ऐसा ही लिखा था और किस्मत के लिखे को कोई टाल नहीं सकता। चोर का जवाब सुनकर हज़रत उमर ने उसे दोहरी सजा दी। एक चोरी करने के लिए और दूसरी अल्लाह पर बोहतान लगाने के लिए। इस पसंग से स्पष्ट हो जाता है कि तकदीर या भाग्य के संदर्भ में हमेशा से ही दो परस्पर विरोधी विचारधाराएं रही हैं। एक के अनुसार मनुष्य उससे बंधा हुआ है जो उसके भाग्य में पहले से ही लिख दिया गया है। वह उससे बाहर नहीं निकल सकता और वही करेगा जो उसके भाग्य में लिखा है। दूसरे मत के अनुसार मनुष्य स्वतंत्र है, वह जो चाहे वह करे, लेकिन जो भी कर्म करेगा उसका परिणाम उसे हर हालत में भुगतना पड़ेगा। इन दोनों विचारधाराओं में से कौन सी सही है, यह कहना उतना ही क"िन है जितना यह बताना कि पहले मुर्गी आयी या अंडा। धर्मग्रंथों में भी इस संदर्भ में परस्पर विरोधी विचार मिलते हैं। )ग्वेद में तो एक पूरा पसंग भाग्य के पूर्व लिखित होने बनाम मनुष्य द्वारा खुद भाग्य को लिखे जाने को लेकर है। यह पसंग भी किसी "ाsस नतीजे पर नहीं पहुंचता है। जबकि रामचरित मानस में तुलसीदास का एक जगह तो यह विचार है कि सब कुछ पहले से ही निर्धारित व लिखा हुआ है। जब ज्ञानी होने के बावजूद रावण सीता का हरन कर लेता है तो तुलसीदास लिखते हैं- जाकर पभु दारुण दुख देई/ ताकर मति पहलेई हर लेई, यानी पभु को जिसे दुख देना होता है उसकी बुॆि वह पहले ही छीन लेता है। लेकिन रामचरित मानस में ही तुलसीदास एक दूसरी जगह लिखते हैं- करम पधान विश्व रचि राखा/जो जस करई सो तस फल चाखा, यानी जो जैसा करम करेगा उसको वैसा ही परिणाम भुगतना पड़ेगा जिससे स्पष्ट है कि भाग्य में पहले से कुछ नहीं लिखा हुआ है। सब कुछ कर्म पर निर्भर है। यही विरोधाभास कुरआन में भी देखने को मिलता है। एक जगह कुरआन ;53/39द्ध में कहा गया है कि मनुष्य को वही मिलेगा जिसके लिए वह कोशिश करता है। लेकिन दूसरी जगह ;81/29द्ध कहा गया है कि तुम उस समय तक कोई चीज हासिल नहीं कर सकते जब तक ईश्वर की इच्छा न हो। वैज्ञानिकों के बारे में कहा जाता है कि वे पूर्व निर्धारित भाग्य में विश्वास नहीं रखते। काफी हद तक यह बात सही भी है। लेकिन विख्यात वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन का कहना था, हर चीज पूर्व निर्धारित है, आरंभ से लेकर अंत तक। सब पर उन बलों की हुक्मरानी है जिन पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। एक कीड़े से लेकर तारे तक के साथ क्या होगा, यह सब पहले से ही तय है। मानव, सब्जियां या कॉस्मिक डस्ट, यानी हम सभी उस रहस्यमय धुन पर नाच रहे हैं जो फासले पर रह कर एक अदृश्य संगीतकार बजा रहा है।य् संभवतः इसी कारण से महाभारत में कर्मफल का सिॆांत समझाते हुए कृष्ण ने धृतराष्ट्र से कहा, जैसे बछड़ा सैकड़ों गायों की टांगों में से होता हुआ अपनी मां को तलाश ही लेता है वैसे ही हमारे कर्म हम पर हावी हो जाते हैं। दलाईलामा के अनुसार, हमें अपने कर्में पर कोई नियंत्रण नहीं होता। हमारे सारे अनुभव हमारे पिछले कर्में का नतीजा हैं। मृत्यु तीन पकार की होती है- हमारे कर्मों के परिणामस्वरूप, जब हमारी उपयोगिता समाप्त हो जाती है और दुर्घटना के कारण। लेकिन इन तीनों का आपस में संबंध है जो पिछले कर्मों की वजह से है। इसी तरह बीमारी भी कर्मों की वजह से ही होती है। लेकिन क्या कर्म का यह अर्थ सही है? क़िस्मत का लिखा मिटा न मोरे भइया, में यक़ीन करने वाले कहते हैं कि आदमी के जन्म से पहले ही उसकी तक़दीर लिख दी जाती है कि वह क्या करेगा, उसे कितना रिज्क़ दिया जाएगा, उसे मौत कब आयेगी, वगैरह-वगैरह। लेकिन इस व्याख्या को मानने मे क"िनाई यह है कि जब एक व्यक्ति का रोज़नामचा उसके जन्म से पहले ही लिख दिया गया है, जिसे बदला नहीं जा सकता तो फिर ईश्वर ने इनसानों को सही मार्ग दिखाने के लिए अनगिनत दूत व अपनी पुस्तकें क्यों भेजीं? श्रीकृष्ण ने गीता में कर्म का संदेश क्यों दिया-कि जैसे कर्म करोगे वैसे फल देगा भगवान्? चोर को चोरी की सज़ा क्यों दी, जब स्वयं ईश्वर उसकी तक़दीर में चोरी लिख चुका था तो फिर वह ग़रीब ईश्वर के लिखे को कैसे मिटा सकता था? ईश्वर की मर्ज़ी और क़ानून के विरूॆ कैसे जा सकता था? इन स्थितियों में उसे दण्ड देने का अर्थ क्या है? स्वयं ही फैसला करना कि चोरी करो और जब वह इस फैसले के अुनसार कार्य करे तो आदेश दे देना कि चोर के हाथ काट दो? अजीब मज़ाक़ है! जिसे मानने से ईश्वर भी इनसाफ करने वाला नहीं रह जाता। दरअसल, शब्द तक़दीर बना है `क़द' से जिसका अर्थ है तोलना, नापना, निर्धरित करना आदि। ईश्वर ने सृष्टि की रचना के बाद हर कर्म ;अमलद्ध को तोला, नापा और उसका फल ;नतीजाद्ध हमेशा के लिए निर्धरित कर दिया। यही वजह है कि हर ज़माने में आलसपन का नतीजा नाकामी, मेहनत का कामयाबी, बुरे कर्में का बदनामी, जहालत का ज़िल्लत, इल्म का इज्ज़त, ईश्वर भक्ति का पवित्रता और अच्छे चरित्र का सम्मान रहा है। यह नतीजे ;फलद्ध किसी कौम, किसी आस्था, किसी दुआ, किसी मंत्र, किसी जाप, किसी चिल्ले या किसी पूजा-पा" की वजह से न आज तक बदले और न भविष्य में बदलेंगे। व्यक्ति कर्म के चयन में स्वतंत्र है, वह चाहे तो शरीफ बने या शरारती, मेहनती बने या आलसी, लेकिन फल ;नतीजेद्ध भुगतने के लिए मजबूर है, यही तक़दीर है और इसी का नाम ईश्वर द्वारा लिखा हुआ भाग्य है। इंसान अपनी तक़दीर खुद बनाता है। वह सिर्फ अपनी कोशिश का फल पाता है और अपनी गलत हरकतों से नुकसान उ"ाता है। यह तथ्य ऐतरेय ब्राह्मण ;33/3द्ध में यूं लिखा है- बै"s हुए व्यक्ति का भाग्य बै"ा, खड़े हुए का भाग्य खड़ा, सुस्त का सोया और चलने वाले का चलता है। अतः तू भी चल। सोया व्यक्ति कलियुग होता है, निदा त्याग करता हुआ द्वापर, खड़ा होता हुआ त्रेता और चलता हुआ कृत-युगऋ अतः तू भी चल। आर सी. शर्मा  

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