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वनों की रक्षा आपदाओं से सुरक्षा

👤 | Updated on:24 May 2016 5:34 AM IST
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 बृजमोहन पंत, पर्यावरणविद् पर्वतीय क्षेत्र में अति व अल्पवृष्टि व वनाग्नि वनों को नष्ट करती रहती है। बाढ़ व भूस्खलन की आपदाएं आती हैं। जैसे-जैसे हमने पहाड़ी क्षेत्रों से छेड़छाड़ शुरू की तो पाकृतिक आपदाओं में वृद्धि हुई। जंगल वीरान हो गए। हरे-भरे पेड़ों की जगह कंक्रीट के जंगल उग आए। जितने पेड़ कटे उतने लगाये नहीं गए। पर्वतीय क्षेत्र का वायुमंडल पदूषित हो रहा है। हरे पेड़ वर्षा को अपनी ओर  आकृष्ट करते हैं। हरे पेड़ों के कटान से पर्यावरण संतुलन बिगड़ गया है। पर्वतीय क्षेत्र की शीतल हवा गर्म होती चली गई। वर्षा कम होने से भूमि की आर्द्रता घट गई। बढ़ते ताप व कम आर्दता के कारण पाकृतिक रूप से घर्षण से चिंगारी से आग लग जाती है। मानवजनित व पाकृतिक कारणों से आग पचंड रूप धारण कर लेती है। वर्षा न होने से वनाग्नि पर नियंत्रण पाना क"िन होता है। शासन द्वारा वन भूमि के अधिग्रहण से व अन्य व्यावसायिक पयोजन के लिए वन भूमि के उपयोग के कारण पर्यावरण संतुलन बिगड़ गया है। वन भूमि माफियाओं ने वनों पर कब्जा कर लिया है। उद्योगपतियों को स्कूल व अन्य उपयोग के लिए वन भूमि दे दी गई है। वन भूमि का अधिग्रहित कर उस पर स्टेडियम व हेलीपेड बनने लगे है। इससे वन भूमि का क्षेत्रफल घट गया है। भारी वाहनों के शोर-शराबे व इनकी सड़क पर आवाजाही से वायुमंडल पदूषित हो गया। वनाग्नि भी वनों से मानव छेड़छाड़ का परिणाम है। उत्तराखंड के मध्य हिमालय क्षेत्र के करीब 3900 हेक्टेयर वन आग में खाक हो गए। इस आग में वन्यजंतु व पशु पक्षी भी नहीं बचे। आग अपैल में तब लगी जब तीतर, बटेर, मुर्गी व लार्प का ब्रीडिंग सीजन होता है। इनके अंडे व बच्चे भी आग में नष्ट  हो गए। पशु-पक्षियों के वास स्थल भी खाक हो गए। कई कीट पंतगे, जलवायु को नियंत्रित करने वाले दुर्लभ पाणी भी आग की भेंट चढ़ गए। आग इतनी पचंड थी की वनों से आसपास के खेतों तक पहुंच गई। हाथी, बाघ, गुलदार आग में कितनी संख्या में जले इसका आंकलन करना बेहद क"िन है। भयभीत वन्यजीव सुरक्षित स्थलों को पलायन कर गए। दावाग्नि को हेलीकाप्टरों से बुझाया गया शेष आग मई में वर्षा से शांत हुई। चीड़ के पेड़ों के कारण पर्वतीय क्षेत्र के वनों में आग लगती है। चीड़ के पेड़ ने पर्वतीय क्षेत्र की जैव विविधता को समाप्त कर दिया है। चीड़ से लाभ भी है। चीड़ अन्य पजाति के वृक्षों व पौधों को भी हानि पहुंचाता है। उत्तराखंड में 20 पतिशत वन चीड़ के है। यह छह से सात लाख हेक्टेयर में आच्छादित है। यह पेड़ भूमि की आर्द्रता को सोखता है और उर्वरा शक्ति को समाप्त करता है। जहां यह पेड़ पैदा होता है, वहां अन्य किसी पेड़ को उगने नहीं देता है। चीड़ के कटान की अनुमति नहीं है। सुपीम कोर्ट ने तीन हजार से अधिक ऊंचाई पर स्थित इसके कटान पर पतिबंध लगाया हुआ है। पर्वतीय क्षेत्र में इसका एक लाभ यह है कि यह कार्बन डाइआक्साइड तेजी से सोखता है। इससे लीसा भी बनता है। पर्वतीय क्षेत्र में वनों की आग से वायुमंडल का तापमान बढ़ गया है। ग्लेशियरों के पिघलने की गति बढ़ गई है। आग से गंगोत्री, मिलम, सुंदरढुंगा व अन्य ग्लेशियरों पर ब्लैक कार्बन जमने की संभावना है। वैज्ञानिकों ने क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के पति चिंता पकट की है। एसिड रेन का खतरा पैदा हो गया है जिससे कोमल रेशों वाली जड़ी बूटियें को अधिक हानि होगी। कार्बेनिक एसिड के धूल कणों से पौधों को फोटोसिंथोसिस पक्रिया पभावित होगी। वर्षा से पर्वतीय क्षेत्र में भूस्खलन व बाढ़ का खतरा मंडरा रहा है। वर्षा भूमि के अंदर तेजी से जाकर भूमि का कटान करेगी। मलवा व गाद वर्षा के साथ बहकर आयेंगे जो भूस्खलन पैदा करेंगे। इससे पाकृतिक आपदा का भय है। आग बुझने के बाद मलवा व पत्थर सड़क पर आ रहा है। पर्वतीय क्षेत्र में अधिकांश जलस्रोत सूख चुके हैं जिससे पेयजल का संकट है, मानसूनी वर्षा जलस्रोत्र में पानी ला सकती है। बीमारियों का खतरा बढ़ गया है। दावाग्नि के मानव जनित कारण हो सकते हैं। एक साथ कई जंगलों में आग लगना पर्यावरणविदें व भूगर्भ शास्त्रियों ने बताया है। इस बार अपैल तक वर्षा कम होने से पहाड़ों को तापमान 30 से 35 डिग्री बढ़ गया और आर्द्रता 20 डिग्री तक पहुंच गई थी। वन अधिकारियों का कहना है कि आपसी  रगड़ व वन्य जीवों के तीव्रता से भागने से चिंगारी निकलती है जिससे आग लग जाती है जो सारे जंगल में फैल जाती है। यदि हवा तेज हो तो जंगलों में आग तेजी से फैल जाती है। भू-वैज्ञानिकों का कहना है कि पर्वतीय क्षेत्र वनों से आच्छादित होना चाहिए। फायर लाइन के साथ घास-पतवार होना चाहिए। ये वन में आर्द्रता बनाए रखते हैं। ऐसी भूमि जल सोखती है। इससे पर्वतीय क्षेत्र में भू-स्खलन व बाढ़ आदि आपदाएं नहीं आती है। आर्द्रता की कमी से वनों में आग लगती है। शुष्क वातावरण में आग तेजी से फैलती है। हमें बाढ़, भू-स्खलन व वनाग्नि की घटनाओं को देखते हुए वनों की सुरक्षा के लिए उपाय करने होंगे। वन विभाग के साथ-साथ नागरिकों का भी यह दायित्व है कि वे वनों की सुरक्षा के लिए वन विभाग को सहयोग करें। वन राष्ट्र की सम्पति है। इसकी सुरक्षा राष्ट्रीय संपत्ति की सुरक्षा है। ग्लोबल वार्मिग से विश्व को बचाने के लिए हमें पर्यावरण संरक्षण में अपना सहयोग पदान करना होगा।  

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