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गांधी जी का लेख और उसकी पतिकिया

👤 | Updated on:25 Sep 2012 12:59 AM GMT
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 1924 में महात्मा गांधी ने `यंग इण्डिया' में 28 मई को एक लम्बा लेख लिखकर महर्षि दयानन्द, `सत्यार्थपकाश', आर्यसमाज तथा स्वामी श्रद्धानन्द जी के सम्बन्ध में जो विचार पकट किए थे, उनसे आर्य नेताओं के विरुद्ध मुसलमानों में पैदा रोष को और अधिक उत्तेजना मिली और `रंगीला रसूल' का आन्दोलन भी महात्मा जी की एक टिप्पणी के बाद ही शुरू हुआ था। `रंगीला रसूल' पुस्तक `19 वीं सदी के महर्षि' पुस्तक के उत्तर में लिखी गई थी। उसके पकाशक थे महाशय राजपाल। लेखक का नाम पुस्तक पर पकाशित नहीं किया गया था। मुस्लिम समाचार-पत्रों ने आपको उसका लेखक मानकर आपके विरोध में आकाश-पाताल एक कर दिया। उनकी दृष्टि में दो ही मुख्य अभियुक्त थे। पहले महाशय राजपाल और दूसरे महाशय कृष्ण। महाशय राजपाल महाशय जी के बहुत पुराने साथी थे। अमृतसर में एक साधारण स्थिति के परिवार में जन्म लेने के बाद अपने जीवन का निर्माण अथ से इति तक उन्होंने स्वयं ही किया था। 1906 में अमृतसर से जालन्धर जाकर महात्मा मुंशीराम जी के उर्दू साप्ताहिक  `सत्यधर्म-पचारक' में आपने बीस रुपये मासिक पर काम शुरू किया। दूसरे ही वर्ष 1907 में `सत्यधर्म-पचारक' का पकाशन `सद्धर्म-पचारक' नाम से गुरुकुल, कांगड़ी से हिन्दी में होना शुरू हो गया था। उसके बाद महाशय जी अमृतसर जाकर उनको अपने पास लाहौर ले आए और `पकाश' की व्यवस्था आदि का सारा काम उनको सौंप दिया। वे महाशय जी के `पकाश' के काम में ऐसे परिश्रमी और विश्वासी साथी सिद्ध हुए कि अन्त में `पकाश' के मालिक ही समझे जाने लगे और `आर्य पुस्तकालय' के नाम से जिस पकाशन-संस्था का पारम्भ उन्होंने भजनों, पार्थना, मत्रों और लेखों के संग्रह के छोटे-छोटे टैक्टों से किया था, वह शीघ्र ही राजपाल एण्ड सन्स के नाम से पहली श्रेणी की पकाशन-संस्था बन गई। आजकल दिल्ली में वह पकाशन-संस्थाओं की पहली श्रेणी में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। इस संस्था का विभाजन हो गया है और दूसरी शाखा हिन्द पॉकेट बुक्स के नाम से पसिद्ध है। `रंगीला रसूल' के आन्दोलन में भी वे संकीर्ण साम्पदायिक मुसलमानों के रोष में महाशय जी के साथी रहे। यह आन्दोलन 1924 से 1929 तक पांच वर्ष चला। इस बीच महाशय राजपाल जी पर तीन बार घातक आकमण किए गए और महाशय जी को 1929 तक हत्या करने की धमकी-भरे पत्र बराबर मिलते रहे। महाशय जी का जीवन पांच वर्ष तक मृत्यु के झूले में झूलता रहा। लाहौर आने से पहले राजपाल जी का नाम घसीटाराम था। अमृतसर की आपकी दुकान पर शाम के समय सभी पार्टियों के आर्य समाजी इकट्"s होकर एक-दूसरे के नेताओं की कुछ ऐसी तीव्र आलोचना किया करते थे कि उनकी दुकान का नाम `निन्दा आश्रम' पड़ गया था। उनको लाहौर लाकर महाशय जी ने उनका नाम राजपाल रख दिया था। आर्यसमाज के नामों के सम्बन्ध में भी उन दिनों में एक आन्दोलन चला था। पुराने निरर्थक नामों को बदलकर सुसंस्कृत नाम रखने की परिपाटी चल पड़ी थी। `रंगीला रसूल' और महाशय राजपाल के अमर बलिदान की गर्वीली कहानी का उल्लेख करने से पहले महात्मा जी के लेख और उसकी पतिकिया की चर्चा कराना आवश्यक है। उससे मुसलमानों की धर्मान्धता और आकामक हलचलों को विशेष बल मिला था। गांधी जी का वह लेख इस पकार है ः ``मेरे हृदय में स्वामी दयानन्द के लिए बड़ा मान है। मैं समझता हूं कि उन्होंने हिन्दू धर्म की बहुत सेवा की है। उनकी वीरता में सन्देह करने की गुंजाइश नहीं, परन्तु उन्होंने अपने धर्म को संकुचित बना दिया है। मैंने आर्यसमाजियों की बाइबिल `सत्यार्थ पकाश' को पढ़ा है। जब मैं यरवदा जेल में आराम कर रहा था, तो कुछ एक मित्रों ने उसकी तीन कापियां मेरे पास भेजी थीं। मैंने इतने बड़े सुधारक का ऐसा निराशाजनक ग्रन्थ आज तक नहीं पढ़ा। स्वामी दयानन्द ने सत्य और केवल सत्य पर खड़े होने का दावा किया है, परन्तु उन्होंने अनजाने में जैन धर्म, इस्लाम धर्म, ईसाइयत और स्वयं हिन्दू धर्म को अशुद्ध रूप में उपस्थित किया है। उन्होंने पृथ्वी-तल पर अत्यन्त सहिष्णु और स्वतत्र सम्पदायों में से एक (हिन्दू सम्पदाय) को संकुचित बनाने का पयत्न किया है। यद्यपि वे मूर्ति-पूजा के विरुद्ध थे परन्तु एक अत्यन्त सूक्ष्म रूप में मूर्ति-पूजा का बोलबाला करने में सफल हुए हैं। उन्होंने वेदों को मूर्ति बना दिया है और वेदों में विज्ञान-पतिपादित पत्येक विद्या का होना पमाणित किया है। मेरी सम्मति में, आर्य समाज `सत्यार्थपकाश' की शिक्षाओं की उत्तमताओं से उन्नत नहीं हो रहा है, अपितु उसकी उन्नति का कारण उसके संस्थापक का विशुद्ध चरित्र है। आप जहां कहीं भी आर्यसमाजियों को पाएंगे, वहां जीवन और जागृति मिलेगी, परन्तु संकुचित विचार और लड़ाई-झगड़े की आदत से वे अन्य सम्पदायवालों से लड़ते रहते हैं और जहां ऐसा नहीं वहां स्वयं आपस में लड़ते रहते हैं। स्वामी श्रद्धानन्द जी को भी इसका अधिकांश भाग मिला हुआ है, परन्तु इन सब त्रुटियों के होते हुए भी मैं उन्हें (स्वामी श्रद्धानन्द जी को) ऐसा नहीं समझता जिसके लिए सुधार की पार्थना न की जा सके। सम्भव है कि आर्यसमाज और स्वामी (श्रद्धानन्द जी) इस लेख से अपसन्न हों। परन्तु यह कहने की आवश्यकता नहीं कि मेरा उद्देश्य किसी को अपसन्न करना नहीं। मैं आर्यसमाजियों के साथ पेम रखता हूं, क्योंकि उनमें से कई मेरे सहकारी हैं। और मैंने स्वामी श्रद्धानन्द जी से उस समय पेम करना सीखा था, जब मैं दक्षिण अफ्रीका में था। यद्यपि अब मैं उन्हें भली-भांति जानता हूं, तो भी उनसे कम पेम नहीं करता हूं। यह मेरा पेम ही है, जिससे ये बातें मैंने कही हैं।'' इस लेख पर सारे आर्यजगत् और अधिकांश हिन्दू समाज में रोष, असन्तोष तथा विक्षोभ की लहर दौड़ गई थी। कुछ समय बाद गांधी जी ने इस लेख द्वारा किए गए अन्याय का पतिकार करने का पयत्न किया किन्तु तीर कमान से छूट चुका था। उससे पैदा हुआ विष बुझाया न जा सका। महाशय जी ने दोनों पत्रों `पकाश' तथा `पताप' में उसके विरोध में दर्जनों लेख पकाशित किए थे और स्वयं भी कई लेख लिखे थे। अपने लेखों में आपने बड़े ही तर्क से यह सिद्ध किया था कि महात्मा जी ने आर्यसमाज के साथ घोर अन्याय किया। `कांग्रेस तबाहकुन रास्ते पर' शीर्षक से उन दिनों में महाशय जी ने कई मुख्य लेख लिखे थे। दूसरी लेख-माला `यह सौदेबाजी का रास्ता खतरनाक है' शीर्षक से लिखी गई थी। एक लेख `यह खुशामद की राह देश के नाश की वजह होगी' शीर्षक से लिखा गया था। इस पकार कई लेख लिखकर आपने गांधी जी को सावधान किया था कि ``इस कहावत को चरितार्थ न होने दें कि घर सूत न कपास, जुलाहे से लठ्ठम-लठ्ठा।'' आपने लिखा था कि ``अंगेज यहां बै"ा हुकूमत कर रहा है। उसका शासन हमारे रक्त को चूस रहा है। एक होकर उसे यहां से खदेड़ने का कोई पबन्ध हो नहीं रहा और आपस की सौदेबाजी आरम्भ करके अंगेज-दमन चक का और आपसी फूट का चोंचला छेड़ दिया है।

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